SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७२ अध्यात्म-दर्शन विवेक है । सर्वदर्शनों का समन्वय नयप्रमाणदृष्टि से किया गया है। अतः 'तमेव सच्चं निसंक ज जिहि पवय' इसे ही ययार्य, सत्य, निगंक समझ कर उसकी बाराधना करनी चाहिए। तीसरा एक और अर्थ निकलता है-पूर्वोक गाथाओ मे जिनवर के ६ अगो में ६ दर्शनो के न्यास की बात पूरी करने के माय ही जनदर्शन का परिचय धारण करके 'अक्षरन्यास' की ध्यानप्रदिया यहाँ मूचित की गई है । इस ध्यान-' प्रक्रिया के अनुसार शरीर के अलग-अलग बगो में अक्षगे का न्यास (स्थापना) करके आराधना करनी चाहिए, नभी जिनवर का सर्वांगदर्शन होगा। यानी वीतराग-परमात्मा का सर्वा गमय सम्पूर्ण दर्शन (झाकी) करने के लिए, परमात्मा की दिहक्षा पूर्ण करने हेतु पूर्ववरपुरुषो ने जो यक्षरन्यास के न्य में महाध्यान की प्रक्रिया बताई है, तदनुमार आराधना करनी चाहिए। इसीलिए यन्त में कहा गया-'सागधे घरी संगे रे। यही कारण है कि जनदर्शन को अन्तरंग-वहिरंग दोनों दृष्टियों ने जिनेश्वर का उत्तमांग कहा है। जिनवरमा सघला दर्शन छ, दर्शने जिनवर भजना रे। सागरमां सघली तटिनी सही तटिनीमा सागर भजना रे॥ पड़ ॥६॥ अर्थ जिनवर (बीतराग पुरुष के तत्त्वज्ञानरूप दर्शन) मे समस्त दर्शनों का समावेश हो जाता है, परन्तु दूसरे प्रत्येक दर्शन में जिनवरप्रणीत जनदर्शन का समावेश हो मी सकता है, नहीं भी हो सकता है, निश्चित नहीं है। जैसे समुद्र मे तो सभी नदियों का समावेश हो जाता है, परन्तु किसी एक नदी में सागर का समावेश होना एकान्त निश्चित नहीं होता । हो भी सकता है, नहीं भी। भाष्य नोतरागप्ररूपित जनदर्शन में सवका समावेश पूर्वोक्तगाथाओं में वीतरागपरमात्मा के चरण-उपासक को उदार व एवं सर्वदर्शनसमन्वयी वनने की बात कही गई है । परन्तु जबतक साधक के के मनमस्तिष्क में यह बात न जम जाय कि जिनेश्वर या जिनवर का क्या
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy