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वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक अनेक गुण कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं ? इस सम्बन्ध मे कारण और परिणाम के साथ बताया गया है । . , ___अथवा जैनदर्शन अन्तरग और वहिरग-शुद्धि से प्रसिद्ध है। अन्तरगशुद्धि का अर्थ है-राग-द्वेष,मोह, अज्ञान और मिथ्यात्व से अशुद्ध हुए विचारो द्वारा आए हुए बुरे परिणामो से रहित शुद्ध आत्मभाव एव समत्वयोग से प्रगट हुमावीतरागभाव । बहिरग शुद्धि का अर्थ है--आरम्भ-पटकायिक जीवो की हिंसा से और व कामभोग विषयसेवन से आए हुए विकारी परिणामो से अशुद्ध बने हुए जगत् के व्यवहार को सामायिकादि यथा ख्यातचारित्राचरण से शुद्ध करना ।
अक्षर-न्यास धरा-आराधक कौन और क्या ? इस प्रकार बताए हुए अन्तरग और बहिरग दोनो रूप जैनदर्शन का स्थान समयपुरुष के उत्तमाग (मस्तिष्क) के रूप मे समझना और दोनो का विभाग जैसा और जिस प्रकार का बताया गया है, नि शक और निष्काम हो कर, विना किसी अपवाद के उसका अक्षरश अनुसरण करना, यह भी अक्षरन्यास-धरा का एक अर्थ है । अक्षरश न्यास (स्थापन) करने से यह भी तात्पर्य यह है कि, जिस प्रकार वे अक्षर बताए गए हैं,उसी तरीके से ,उसकी स्थापना यानी सेवन, आराधन, आचरण करने का आग्रह रखना अक्षरन्यास है। अमुक मुद्रा से नमोत्युण का पाठ बोलना है, अमुक विधि से 'इच्छामि खमाममणो कहना है, इत्य दि जैसी अक्षर-सत्य की स्थापना है, उसी प्रकार से अक्षरन्यातरूप धरा = पृथ्वी का आराधन करना चाहिए। ___ इसका दूसरा अर्थ यह है-पूर्वोक्त प्रकार से अन्तरग-बहिरग-शुद्धि से प्रगट हुमा तत्त्वज्ञान असरन्यासरूप है। फिर जिनभाषित आचारागादि द्वादशागी आगम, जिन स्वर-व्यजन-अक्षरादि से न्याम किया (रचा) हआ है, उस द्वादशागीमय, जैनदर्शन की धरा (आज्ञा) को अक्षरन्यासधरा कहते हैं। कयोकि द्वादशागीमय जैनदर्शन ही अक्षरन्यासघरा है, वही सवंदर्शनो से ऊपर है मस्तक-स्थानीय है। सारे दार्शनिक विचारो का सपन्वय- सापेक्षदृष्टि से कथन, अनेकान्त,नय, प्रमाण आदि से स्थापन मस्तिष्क से ही होता है । अत द्वादशागामय जैनदर्शनरूप अक्षरन्यासधरा का आराधक-इसी जैनदर्शन की आज्ञा का । पालन है । तात्पर्य यह है कि वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक को द्वादशागीमय जैनदर्शनरुप अक्षरन्यास की आज्ञा की आराधना अन्त करणपूर्वक करनी चाहिए , क्योकि इसमे हेयोपादेय का यथायोग्य विधान हैं, समस्त पदार्थों का