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अध्यात्म-दर्शन
परिणते पर धावा बोल देते हैं । सामान्य माधक को तो ये झटपट पराजित कर बैठते है, उसकी स्वभावपरिणति की साधना को मिनटो में चौपट कर देते हैं, परन्तु वीतरागप्रभु यह सब उपद्रव जानबूझ कर कैसे सह सकते थे ? उन्होने वीतराग-(शुद्ध आत्मभाव) की परिणति पकडी। इनको जरा भी मुंह नहीं लगाया, इन्हे पपोला नही । अत प्रम को वीतरागपरिणति में रमण करते करते देख कर राग, द्वेप और अविरति इन तीनो परिणतियो के कान खडे हुए, वे झटपट जागे और उठ कर ऐसे भागे कि खरगोश के सीग की तरह उनका कोई अतापता ही नही चला । प्रभु ने उन्हें जाते देख कर बुलाए या अपनाए नहीं। प्रभो । आपके इस स्वभाव को देख कर मुझे भी वडी प्रेरणा मिली है कि मापने जिस प्रकार मन मजबून करके हिम्मत के माय इन तीनो महादशेपो की ओर जरा भी नहीं देखा, न इन्हे तरजीह दी, और डट गए अपने शुद्ध आत्मभावो मे, इसी प्रकार में भी अपनी स्वभावपरिणति मे डटा रहूं, अडिग रहूं , वशर्ते कि माप इस सेवक की अवगणना न करें ! __अब श्रीआनन्दघनजी वीतराग परमात्मा के द्वारा त्यक्त काम्यक रसनाम के १५ दें दोप की कथा अकित करते -
वेदोदय कामा परिणाम, काम्यकरस१ सह त्यागी। निष्कामी करुणारससागर अनन्त-चतुष्क-पद पागी, होम०॥७॥
अर्थ स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपु सम्वेद के उदय से काम के जो परिणाम होते हैं [राममोग या काम वासना के प्रति विषय को जो लहरें उठती हैं] उन्हे तथा समस्त काम्यकरस काम के अनुकूल विषयास्वाद अथवा कामनाजनित अनुरुल विषयो, कर्मों या पदार्थों के आस्वाद का आपने त्याग कर दिया और निकामी काम-इच्छाकाम-नदनकाम दोनो से रहित हो गए। इन समस्त कामरसो का त्याग करने के बावजब भी आप करुणारस के सागर बन गए।
१ 'काम्यकरस' के बदले किसी प्रति मे 'काम्यकरम' शब्द मिलता है, उसका अर्य होता है-कामना (इच्छा) से जनित कर्म का प्रभु ने सर्वया त्यांग कर दिया। ।