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अध्यात्म-दर्शन नाम भानुराजा था । उनका कुल इच्दाकु और वश पिग था। ये मत्र आपके पावन अवतरण से, स्पर्श से धन्य हो । मामान्यतया अर्य करे तो ममी वीतराग परमात्माओ की नगरी, बेला घड़ी, माता-पिता और कुल-नग धन्य हैं। प्रभु (धर्मनाथ) का शरीर रोगरूपी मल मे रहित, निर्मल, मदनवर्ण है। यह दिव्य औदारिक शरीर गेहणाचल पर्वत की जपमा में उपमेय है । तथा वह दिव्यशरीर स्वस्तिक आदि एक हजार लक्षणो रूप मणियो का तथा मौम्यता, आह्लादकता बादि उत्तमगुणो का धाम-~-पवनत्य है । इस गरीर का अधिष्ठाता अथवा साझीघर आत्मा मुनिजनो के मनपी मल को सुशोभित करने वाले राजहस के समान है और प्रसन्नता का कारणभूत है । अथवा शुद्ध शाश्वत वीतरागदेव परमात्मा (मुद्धात्मा) की दृष्टि मे अयं करें तो..-परमात्मा निर्मल-क्षायिकभावी, केवलज्ञानादि गुणमणियो के नाधाररूप है, भव्यात्माओं के हृदयसगेवर मे सम्यग्ज्ञानादि गुणमणियो को उत्पन्न करते हैं, वे अपने स्वभाव से अनल मेरपर्वत नरीने हैं नीर सावद्य निग्रानुष्ठानादि से निवृत्त मेनियो के माननरोवर के राजहन हैं । वे योगी मुनिजन आपके स्वर का मनन करते हैं, उनके अन्तर ध्वनि और विचार उटने है-अह+स या त.+ अहम् = सोऽहम् - हसः । अन्नात् वीतराग प्रभु जना ही में हैं। नगरीपद का रूप 'नकरी' होता है, अन सिद्धत्व की अपेक्षा से न--करीनकरी यानी जो हस्तपादादि शरीरागो से रहित होते हैं। अथवा मितन्यपदपात परमात्मा स्थूलसूक्ष्मशरीर से रहित शुद्धात्मा को नगरी (नकरी) गमना ! वही मात्मा धन्य है । उस वेला व घडी को भी धन्य है, जिस समय पोवनजान-योवलदर्शनरूप आत्मा का प्राकट्य होता है। परमात्मा या शुद्धात्मा की माता अप्ट-प्रवचनमाता है और सायिकमावत्प पिना सर्वथा धन्य है-पगमनीय हैं । अनन्तवीर्यादि गुणसमूह और प्रतिसमय अव्यावाध मात्गमुख पैदा होना, यही गो परमात्मा का कुल और वश है, जो प्रशम्य है।
परमात्मा से अभिन्न प्रीतिप्सम्पादन के लिए उनके चरणो मे निवास आवश्यक है, यही सोच कर श्रीआनन्दघनजी अन्तिम गाया में कहते हैमन-मधुकरवर कर जोड़ो कहे, पदफज निकट निवास, जिनेश्वर ! चननामी आनन्दघन सांभलो, ए सेवक अरदाम, जिनेश्वर !
॥ धम० ॥८॥