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________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म ३१३ अर्थ ___मेरा मनरूपी श्रेष्ठ भ्रमर हाथ जोड कर कहता है कि आपके चरणकमल के पास मेरा निवास हो: कर्मशत्रओ को अत्यन्त नमा देने वाले या बहुत ही नामी (प्रसिद्ध) आनन्द के ममूहरूप परमात्मा | सेवक की इस प्रार्थना (विनति) को सुनिये। भाष्य प्रीतिसम्पादनहेतु चरणकमलो के निकट निवास की प्रार्थना इस स्तुति की अन्तिम गाथा मे श्रीआनन्दघनजी परमात्मप्रीतिरूप धर्म का सर्वांशत पालन करने वाले हेतु कहते हैं कि हे प्रभो ! आप तो अनेको को झुका देते हैं या आप अनेक नामो से प्रसिद्ध हैं, आपको किस-किस नाम से पुकारूं ? अभिन्नता के लिए नामरूप (जो भिन्नता प्रगट करने वाले हैं) की आवश्यकता नहीं रहती । अत प्रभो । आपके उत्तमोत्तम गुणो से आकृष्ट हो कर मेरा मनरूपी मधुकर, जो कि शुभभावो से ओतप्रोत है, प्रार्थना करता है, अथवा मेरा मन आपके चरणकमलो मे गुणरूपी पराग का रसपान करने हेतु उत्कृष्ट भाववाला भ्रमर वन कर आपके चरण-शरण मे रहना चाहता है। मेरी आर्तभाव की इस विनति को आप मान ले। जव आपकी मेरे प्रति प्रीति (शुद्ध वत्सलता) होगी, तभी मैं और आप एक बनेंगे । फिर कोई भी विघ्न आ कर हमारी प्रीति मे रोडा नहीं अटका मकेगा , न कोई भी आ कर हमारे बीच मे दूरी पैदा कर सकेगा। प्रश्न है-क्या वीतराग परमात्मा भक्त की इस प्रार्थना को सुनेंगे ? या ऐसी याचना पूरी करेंगे ? वास्तव मे जैनदृष्टि से वीतरागप्रभु के साथ यह बात घटित नहीं होती, मगर भक्ति की भापा मे भक्त परमात्मा को अभिन्न आत्मीय मान कर ऐसा कहता है और आत्मस्वरूपनिष्ठ वन कर स्वरूपाचरण (यथाव्यातचारित्र) रूपी चरणकमल में निवास करना चाहता है तो कोई अनुचित भी नहीं है । तभी परमात्मप्रीतिरूप धर्म का पालन हो सकेगा। सारांश इस स्तुति की सभी गाथाओ मे वीतराग परमात्मा के साथ अभिन्न, निर्वि
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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