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अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा
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अध्यात्म का स्वरूप भलीभांति समझाने के वाद अब अन्तिम गाथा मे श्रीआनन्दघनजी आध्यात्मिक पुरुप का लक्षण बताते है
अध्यातमी जे वस्तुविचारी, बीजा जाण२ लबासी रे। वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, आनन्दधन-मतवासी रे ॥
श्री श्रेयांस० ॥६॥
अर्थ जो अध्यात्म मार्ग मे लीन हैं, वे वस्तुतत्त्व का विचार करने वाले होते हैं, बाकी के दूसरे लोग तो कोरे लवार है-अध्यात्म की बकवास करते हैं । वस्तु को जैसी है उस रूप मे जो (वस्तुतत्त्वरूप मे) प्रकट करते हैं, यथार्थ, रूप से उस पर प्रकाश डालते हैं, वे ही आनन्द के समूह रूप आत्मा के (अध्यात्म) के मत मे निवास करने (स्थिर रहने वाले है।
आध्यात्मिक कौन और कैसे ? श्रीआनन्दघनजी इस स्तुति की अन्तिम गाथा मे आध्यात्मिक की यथार्थ पहिचान बताते हैं और जो आध्यात्म के नाम से थोथी बकवास करते है, उन्हे लवार समझ कर उनका सग छोडने की वात सूचित करते है । वास्तव मे अध्यात्म का विपय इतना गहन है, इतनी चिरकालीन साधना की अपेक्षा रखता है कि राह चलता व्यक्ति आत्मा की दो चार रटी-रटाई वाते कह देने मात्र से आध्यात्मिक नहीं माना जा सकता है। आध्यात्मिक की सच्ची पहिचान यही है कि जो किमी वस्तु पर विभिन्न नयो, पहलुओ एव दृप्टिविन्दुओ मे विचार करते है, उस पर भलीभांति श्रद्धा रखते है, समझते हैं, अध्यात्म के पूर्वोक्त नक्षण के अनुसार वस्तु को सत्य की कसौटी पर कसते है, जो वस्तु गुणो में सही नहीं उतरती, उसे पकटे रखने का मोह नहीं रखते, उसे तुरन्त छोड देते हैं, गुणो मे सही उतरने वाली वस्तु को पकडते है, उसे ही यथार्थरूप मे प्रकाशित (प्रगट) करते हैं। चाहिए।
१ किसी किसी प्रति मे 'अध्यातमी' के बदले 'अध्यातम' शब्द है, वहाँ अर्थ
होता है-'अध्यात्म मे तो वस्तु का विचार ही होता है , २ 'जाण' के बदगे नाही-नाही 'वधा' शब्द है।