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________________ २३८ अध्याग-पर्णन दगन आत्मा को क्षणिापरिणामी गानता है न मालगा को रागादिमय (प्रनिगय) मानत है और कोई वर्णन यात्मा को सदा-गर्व वा एकाल ज्ञानमय मानता है, कोई कर्ममय और कोई कर्मफलतनागय मानना है। इन मव एकान्तवादी दार्शनिको की एकान्त मान्यता का अम्बीकार करते हुए श्रीआनन्दघनजी अनेकान्तदृष्टि में गापार मे शुट भागात विविध वर्णन परमात्मा की स्तुनि के बहाने करते है। मतलब यह है कि माधारण भव्य आत्मा को अगर परमात्मा से मिलना हो तो उसे सर्वप्रथम यह मोचना होगा कि मैं कौन हैं? आत्मा कान है? परमात्मा कौन व बसे है ? मैं नित्य, कूटस्थ (सदासर्वदा) निन्य है या परिणामी (परिवर्तन-रूपान्तरणीन) भी हूँ? मेरी आत्मा निराकार ही है या वह आकार भी धारण करती है ? वह पचभूनमय अचेतन ही है या शरीर के माय रहते हुए सचेतन भी है ? यदि आत्मा केवल ज्ञानचेतनामय है तो फिर गरीर के साथ उसका क्या लेना-देना है ? और वह इन गति, योनि या टेह मे फैमे आ गई ? यदि कहे कि कर्मों के कारण आ गई , तब क्या आमा कमंत्रतनामय भी है ? यदि कर्मचेतनामय है तो रहे, किन्तु वह तो सभी नगारी जीवों के साथ समानरुप मे है । फिर एक को कम दुख, एक को अधिक, एक मन्दबुद्धि, एक तीवबुद्धि, ऐमा समार में क्यों दिखाई देता है ? ऐमी विविधता है, तव तो कहना चाहिए कि आत्मा कर्मफननेतनामय भी है। इन सब वातो का रहस्य श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा की स्तुति के माध्यम में खोल कर रख दिया है । परमात्मा में निहित शुद्ध आत्मा के गुणो तथा आत्मा के विविध रूपो का ज्ञान हो जाना ही वास्तव में अध्यात्मज्ञान है। ऐमा । अध्यात्मज्ञान हो जाने पर माधक को परमात्मा से मिलने में आसानी हो जाती है। अत इस गाथा मे परमात्मा यानी शुद्ध आत्मा को त्रिभुवनम्वामी कहाँ गया है । आत्मा जव रागद्वेपादि विकारशत्रुओ को जीत कर गुद्वचैतन्य पर अपना आधिपत्य जमा लेती है , तो तीनो लोको मे कोई ऐसी शक्ति नहीं, जो उमे हटा सके, दवा सके , जीत सके। तीनो लोको मे वह आत्मा सवने बढकर शक्तिमान व अनन्तवीर्यमय होने मे वह तीनो भुवन से ऊपर उठ कर तीनो
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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