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विविध नेतनाओ की दृष्टि मे परम आत्मा का ज्ञान
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भवनो की ग्वामी बन जाती हैं । ऐगी शुद्ध-बुद्ध-मुक्त बनी हुई आत्मा फिर कही जन्म-मरण नहीं करती, कोई कमवन्धन नहीं करती, परन्तु साथ ही वह ज्ञानादि मे परिणमन करती है, इसलिए परिवर्तन = (परिणाम) शील भी है । वह एकान्त कूटस्थ नित्य नही है । समारी आत्माएँ भी निश्चयदृष्टि से नित्य एव अविनाशी होते हुए भी विविध गतियो मे भ्रमण करने के कारण परिणमन-परिवतनशील है, अथवा शरीर धारण करने के गाथ-साथ आत्मा के अनेक नाम-स्प हो जाते है । परमात्मा की एक आत्मा के भी जिन, वीतराग आदि या अपम, अजिन आदि, अथवा तीर्थकर जगद्गुरु, केवलज्ञानी, विश्ववत्सल आदि अनेको नाम-स्प हो जाते है । साथ ही पर यानी शत्रु--(आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के गुणो का घात करने वाले) कर्मो या रागद्वेपादिविकारो-परभावो रूपी शत्रुओ को परमात्मा नमा देते हैं। वे उन्हे अपने पर हावी नहीं होने देते । न अपनी आमा को दवाने देते है , इस दृष्टि से वे परनामी हैं। इसी प्रकार ममारी आत्मा भी परनामी बन सकती है , वशर्ते कि वह रागद्वेपादिविकागे या आत्मगुणघातक कर्मो, (जो कि परभाव है, आत्मा के शत्रु हैं) से दूर रह कर स्वभाव मे ही रमण करे । __ परमात्मा की आत्मा जब गुद्ध, बुद्ध, सिद्ध (मुक्त) हो जाती है, तब वह सर्वथा निराकार हो जाती है अथवा निश्चयदृष्टि से समस्त आत्माएँ अपने आप मे अल्पी, अमूर्त होने मे निराकार है, इसलिए परमात्मा भी निराकार है । परन्तु व्यवहारदृष्टि से शरीर के साथ सयोग होता है, अथवा वीतरागप्रभु की आत्मा भी जव तीर्यकर-अवस्था मे देह मे स्थित (शरीरव्यापी) रहती है, तब उनकी आत्मा और समारी आत्माएँ भी साकार सचेतन कहलाती है। अथवा परमात्मा मे साकार (ज्ञान) उपयोग के कारण साकार ज्ञानचेतना और निराकार (दर्शन) उपयोग के कारण निराकार नानचेतना होती है । यही समस्त मसारी जीवो में भी होती है। अथवा वीतरागप्रभु (तीर्थकररूप मे) जव देणना (उपदेश) देते है, तव वे शरारीरी होने से माकार होते है, और जब मोक्ष मे चले जाते हैं, तव निराकार हो जाते हैं । इस दृष्टिविन्दु से आत्मा के दो प्रकार हुए-जो वीतराग प्रभु मे घटित होते है । प्रत्येक आत्मा को इन दो प्रकारो से समझना चाहिए। आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थाओ के कारण उसे साकार और निराकार कहने मे जरा भी विरोध नही है । क्योकि व्यवहारदृष्टि से ये