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अध्याता-दर्शन
राब भेर नवग्यागेदो कारण ये । शिनगरि ने आत्माद नहीं होता।
मी तरह न्याहारनय की दृष्टि आहमा गाTTIT, और भावार्मफल का कागी (गोक्ता या अभिनापी)। प्रगा पागा जब सना . गगार में रहता है, ना ना वह कम पाता है कि गुजरना है. तो उसे शुभफल और अशुभामं करता है तो अशुभफा गिनता है। वीतराग परगानगा भी जब तक साकार (सदेह), गयोगी बनी है, तब तक उनके भी योगी की चपलता के कारण मर्म होते है, चाहे वे गुम ही हो, और उन कर्मों का फल भी जवश्यमेव नागना पड़ता है, चाहे में ममयमान भी भोगें। किन्तु वीतराग-प्रभु जानते हैं कि जो मैने लिये है, उनका फल म्बय गुरु ही अवश्यमंत्र भोगना है। कर्मफल गोगने नगर वे पवना नहीं। वे कर्मफल भोग कर उनगे गीन ही ट्याग (मुति) 'नो' । गत व शुद्रोपयोगी रट गार कमल मागने के जौपचारित पसे नामी हे जाते है। अथवा उन्होंने येवनानप्राप्ति ने पो जोगी भाभकर्म नि है, उनके फलस्वरुप तीर्थकर नामगोश आदि कर्मफल---उन्ट ही गोगने है, क्योगिन अकाट्य गिद्वान पर उनका गलीमानि विश्वाा होता है कि जो भी कर्म किये है, उनके फल भोग बिना कोई चारा नही है। योकि १ वृनकों का फलभोग अनिवार्य है। जब गमत कर्मफल भोग लिये जायेंगे, तभी मुक्ति होगी। मुक्ति में गये वाद न तो कर्म करना होता है और न कर्म फल भोगना होना है। वहाँ तो कर्म मुक्त हो कर आत्मा निजगुणो मे प्रवृन रहता है, यानी अपने ज्ञान-दर्शन-चारिनादि गुणो म रमण करता रहता है। यहाँ मिट्ट, वुद्व, मुक्त हो कर परमात्मा गुद्ध ज्ञानचेतना में लीन रहते हैं।
मतलब यह है कि जैनदर्शन में चेतना के तीन मंद माने गये हैज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। चेतना यद्यपि अपने आप में एक अखण्ड तत्त्व है, किन्तु विभिन्न दशाओ या अपेक्षाओ मे उसके तीन रूप बन जाते है-ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलस्प । यद्यपि तीनो चेतनाओ के क्रम
- १. कडाण कम्माण मोक्ख अत्यि।