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विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान
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मे पहले कर्मस्प चेतना, फिर कर्मफलरूप चेतना, तदनन्तर ज्ञानरूप चेतना है, तयापि यहां पहले ज्ञानचेतना को प्रस्तुत किया है, तदनन्तर शेप दोनो चेतनाओ को । इन तीनो चेतनाओ के लक्षण कमश आगे की गाथाओ मे श्रीआनन्दघनजी स्वय बतलायेंगे।
यहाँ उपर्युक्त तीनो चेतनाओ को परमात्मा मे बताने का अभिप्राय यह है कि आध्यात्म-रसिक साधक कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के समय सावधान रहे, समभावी हो कर चले और अप्रमत्त (जागृत) रहे , ताकि ससार से पराड्मुख हो कर निराकार परमात्मा की तरह अन्तर्मुखी वन कर एकमात्र शुद्ध ज्ञानचेतना की अखण्डधारा की साधना करे। स्वय मे स्व का उपयोग करे, अपने अन्दर अपने स्वरूप का ज्ञान करे। इस प्रकार ज्ञानचेतना की अविच्छिन्न धारा विकमित होते-होते सिद्ध (परमात्म) दशा तक पहुंच जाय।
इसी दृष्टि से सर्वप्रथम ज्ञानचेतना के विषय मे अगली गाथा मे कहते
निराकार अभेदसंग्राहक, भेदग्राहक साकारो रे । दर्शन-ज्ञान दुभेद चेतना, वस्तुग्रहण व्यापारो रे ॥वासु०॥२॥
अर्थ परमात्मा मे अभेदस्वरूप को ग्रहण करने वाला निराकार (दर्शन = निविशेषसामान्य) उपयोग है , तया भेदयुक्त स्वरूप को ग्रहण करने वाला साकार (ज्ञान-विशेष) उपयोग भी है । वस्तु को ग्रहण करने मे आत्मा के इन दोनो उपयोगो (व्यापारो) को ले कर इनके क्रमश दर्शनचेतना और ज्ञानचेतना ये दो भेद हो जाते है। अर्थात् ये दोनो चेतनाएं ही क्रमश: निराकार और साकार कहलाती है, जो परमात्मा मे केवलदर्शन और केवलज्ञान के रूप मे रहती हैं।
भाष्य
ज्ञानचेतना : स्वरूप और भेद परमात्मा मे जिस त्रिशुद्ध ज्ञानचेतना का विकास हुआ है, वह दो प्रकार की है-एक सामान्यग्राही है, दूसरा विशेषग्राही है । जीव-अजीव 'मादि ।।