SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३८७ रहित शुद्धस्वरूपी अनन्तगुण सम्पन्न आत्मा को एकरूप मे प्रतिपादन करते हैं, जबकि व्यवहारमार्गी लोग आत्मा के अनन्त विकल्पो को ले कर अनन्तभेद बताते हैं । एक दूसरे की दृष्टि में एक दूसरा नय गौण होता है। अपेक्षावाद (स्यादवाद की दृष्टि से दोनो मार्ग अपने-अपने ध्येय के अनुसार ठीक हैं। एकान्तरूप से निश्चय का कथन करना और व्यवहार का निषेध (अपलाप) करना ठीक नहीं, तथैव निश्चय को बिलकुल जनुचित मान कर एकान्तरूप मे व्यवहार का आग्रह रखना भी ठीक नहीं। सात नयो मे से भी प्रथम के तीन या चार नय व्यवहारनय के नाम से परिचित हैं, तथा पिछले तीन नय पारमार्थिक रूप के प्रतिपादनकर्ता होने से निश्चयनय के नाम से प्रसिद्ध हैं। किन्तु एक बात निश्चित है कि उच्चभूमिका पर आरूढ जीवो का विकासक्रम परमनिश्चयनय की मुख्यता (व्यवहारनय की गौणता) से ही आगे बढता है । उपाध्याय नगोविजय जी ने 'अध्यात्मोपनिषद्' तथा 'अध्यात्मसार' मे इसी बात की ओर अगुलिनिर्देश किया है.--१ "जो पर्यायो मे ही रत हैं, वे परसमय मे स्थित हैं, और जो आत्मम्वभाव मे लीन हैं, उनकी स्वसमय मे ही निश्चलतापूर्वक स्थिरता होती है ।" २ "इस प्रकार शुद्धनय का अवलम्बन लेने से आत्मा मे एकत्व प्राप्त होता है, क्योकि पूर्णवादी (परमार्थवादी) आत्मा के अशो (पर्यायो) की कल्पना नहीं करते । (पर्याय जितने जानते हैं, उतनो से पूर्णद्रव्य ज्ञात नही होता । सिर्फ अश ही प्रतीत होते हैं।)स्थानाग आदि सूओ मे 'एगे आया' (एक आत्मा) के कथन का जो पाठ है, उसका आशय भी यही माना गया है।" अत जव व्यवहास्नय का आश्रय ले कर कोई बात करता है तो आत्मा के अनन्त भेद हो जाते हैं, यह हम सोने के दृष्टान्त पर से पहले जान चुके हैं। सोने की जैसे अनेक चीजें बनती हैं, वैसे ही व्यवहारनय से हम प्रत्येक वस्तु के ये पर्यायेषु निरतास्ते ह्यन्यसमयस्थिताः । आत्मस्वभावनिष्ठानां वा स्वसमयस्थिति ॥२६॥ -अध्यात्मोपनिषद् इति शुद्धनयात्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि । अंशादिकल्पनाऽप्यस्थ, नष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥३१॥ एक मात्मेति सूत्रस्थाऽप्ययमेवाऽशयो मतः ।। --अध्यात्मसार
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy