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१७: श्रीकु थुजिनस्तुति
मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना
(तर्ज-अंबर देह मुरारि! हमारो "राग-गुर्जरी व रामकली) कुंथुजिन | मनडु किम ही न बाझे हो, कुंथुजिन, मनडु जिम-जिम जतन करीने राखु, तिम-तिम अलगुभाजे हो।कुथु०॥१॥
अर्थ हे कु थुनाथ (१७ वें तीर्थकर) परमात्मन् ! मेरा मन किसी भी उपाय से वश (कावू) मे नहीं आता, एकाग्र हो कर एक विषय मे नहीं लगता। इसे ज्यो-ज्यो प्रयत्न करके इसे वश मे रखने जाता हूँ, त्यो-त्यों यह दूरअतिदूर भागता है।
भाष्य
प्रभु के समक्ष मनोवशीकरण का निवेदन पूर्वस्तुति मे शान्ति के स्वरूप और उपायो का सागोपाग विश्लेपण किया गया था, परन्तु इस प्रकार की आध्यात्मिक शान्ति के पथ पर पैर रखते ही, तथा शान्ति के लिए समता, स्वरूपरमणता एव आत्मा-परमात्मा की अद्वैतसाधना करने के लिए प्रवृत्त होने ही मन सामने आ कर विघ्नरूप मे खडा हो है । मन किसी भी तरह शान्ति के पूर्वोक्त उपायो को अजमाने नहीं देता। शान्ति प्राप्ति के लिए आवश्यक आत्मवल को मन निर्बल कर देता है, जिसके कारण साधक कषाय, मोह एव प्रमाद के वश हो जाता है । साधना के उच्च शिखर पर उसका पहुँचना बहुत ही कठिन हो जाता है।
साधक जव-जब आत्मस्वरूपलक्ष्यी साधना करने लगता है, तब-तब मन उसमे विघ्न डाल देता है । वह इन्द्रियो को साधक बनने के बजाय वाधक वनने को यानी उलटी दिशा मे प्रेरित कर देता है । इसी कारण साधक कई वार स्वय भी भ्रम मे पड जाता है या दूसरो को 'भ्रम मे डाल देता है कि वह आत्मा-परमात्मा की इतनी बाते करता है, शास्त्रो का अहर्निश स्वाध्याय