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________________ ३८० अध्यात्म-दर्शन चार्वाक परलोक को नहीं मानते, उसमे आत्मम्वभाव से विपरीत चाते है। (३) आत्मा जिस समय परभाव मे एकत्वरूप में प्रवृत्त हो, उस समय - को परसमय कहते है। इस प्रकार इन तीन अर्थों के अनुसार स्वसमय-परसमय को पहिचानने की कु जी प्रस्तुत गाथा मे वता दी है । परममय को जाने विना चममय की विशुद्ध जानकारी नहीं हो सकती और जब तक स्वसमय का विशुद्ध ज्ञान न हो, तव तक माधक स्वसमय में प्रवृत्त नहीं हो सकता। अमुक तत्त्वज्ञान स्वसमय है या परसमय, इसके जानने का तरीका इसमे बताया गया है, वह दोनो मुख्य नयो की दृष्टि गे है, इसलिए नयो का ज्ञान भी होना आवश्यक है। इसलिए अगली गाया मे प्रसगवश स्त्रसमय :- विशुद्ध यात्मा के अनुभव की वात विविध नयो की दृष्टि से कही जा रही है - तारा नक्षत्र ग्रह चंद्रनी ज्योति दिनेश मोक्षार रे । दर्शन-ज्ञान-चरण थफी, शक्ति निजातम धार रे॥घरम०॥३॥ अर्थ जिस प्रकार तारो, मगल आदि ग्रहो, अश्विनी आदि नक्षत्रो और चन्द्रमा की ज्योति (कान्ति) सूर्य (सौरमण्डल) मे अन्तर्भूत हो जाती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र, इन सबकी शक्ति अपनी आत्मा मे जानो। भाष्य शत्ति का केन्द्र . आत्मा पिछली गाथा मे स्वसमय और परसमय का अन्तर बता कर स्वसमय को अपनाने की बात ध्वनित कर दी है। इस गाया मे प्रकारान्तर से स्वसमय की बात की पुष्टि की गई है । सूर्य की उपमा दे कर इस बात को सप्ट किया गया है कि शुद्ध आत्मा (परमात्मा) मे स्वधर्मरूप अनन्त शक्ति छिपी हुई है, पर वाहर मे वह अलग-अलग रूप मे दृष्टिगोचर होती है, मगर है वह शुद्ध आत्मा की ही, और उसी मे वह अन्तहित हो जाती है । जगत् मे ऐसी प्रसिद्वि है कि तारा, ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा वगैरह प्रकाशमान पदार्थो में सूर्य का ही प्रकाश सत्र म्ति होता है । जब सूर्य प्रकाशित होता है, तो इन
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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