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वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान
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स्वसमय की बातें हैं । आत्मा कर्ममलरहित दशा मे कैसा निर्मल होता है ? यह कैसे रहता है ? इस सम्बन्ध मे हुई अनुभव की बातें जहां हो, वहाँ स्वसमय (स्वधर्म=परमात्मा का धर्म) है, यह जान लेना चाहिये । मतलब यह है कि आत्मा का मूल स्वभाव ऊर्ध्वगामी है और पुद्गल का स्वभाव है-अधोगामी। जहां आत्मा के मूल गुणो का अनुभव होता हो, यानी आत्मा निर्मल हो, तव कैसा होता है क्या करे ?) ये सब बातें स्वसमय की है। इस प्रकार के शुद्ध द्रव्याथिक नय की दृष्टि से विचार या कथन स्वममय हैं । तथा शुद्ध आत्मा का सदा के लिए जो साक्षात् अनुभव हो, वही स्वसमय है, वही स्वात्मा का अपना विलास है, आमोद-प्रमोद है, मौज है । कारण यह है कि शुद्ध आत्मानुभवरूप = आध्यात्मिक विकासरूप महाधर्म की सम्भावना आत्मा मे ही हो सकती है आत्मार्थियो के लिए उसी की विचारणा आवश्यक है, अन्यथा विचारणा करने की आवश्यकता ही क्या है ? (२) ऐसा ही आत्मकथन करने वाला शास्त्र स्वसमय= स्वशास्त्र स्वसिद्धान्त कहलाता है, (३) समस्त परद्रव्यो से निवृत्त हो कर आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अपने स्वभाव मे एकत्वरूप से जिस समय प्रवृत होता है, उसे भी स्वसमय कहते हैं । (आ) १ आत्मा के अतिरिक्त जो परवस्तु, पुद्गल या भौतिक सुखो का जिसमे विधान हो, अथवा आत्मा से भिन्न दूसरे द्रव्यो की या द्रव्य मे अतिरिक्त गुणो या पर्यायो की (पर की) प्रति छाया (परछाई) जहा पडती हो, अर्थात् अनादि अविद्यारूप लता के मूलमोह के उदय से आत्मा आने ज्ञानदर्शनादि स्वभाव से च्युत हो कर मोह-राग-द्वं प आदि परभावो में एकत्वरूप से प्रवृत हो, उसे परसमय कहते है । अथवा परद्रव्य की पर्यायाथिक नय की दृष्टि से विचारणा हो, वहा परसमय का निवास है। (२) ऐसे शास्त्र जिसमे आत्मा के अतिरिक्त वहिरात्मभाव की लौकिक बातें हो, ऐसे सिद्वान्त या शास्त्र परसमय कहलाते है, इनमे पर्व या किसी विशिष्ट दिवस या प्रमग पर कभी कभी छाया की तरह आत्मानुभाव की बातें आ जाती हो या की जाती हो, वहां परसमय का निवास समझना चाहिये । परसमय या परधर्म मे आत्मानुभव की बात कभी कभी होती हैं, उसमे पोद्गलिकभाव की वाने ही अधिक होती हैं । मतलब यह है कि जिनमे मुख्यतया आत्मानुभव की वाते नहीं होती, कमी कभार जरा आत्मानुभव की बात आ जाती है, उस सिद्धान्त, शास्त्र या धर्म को परसमय ही समझना चाहिए, जैसे वृहस्पति जैसे