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________________ ३७८ अध्यात्म-दर्शन की दृष्टि से विचारणा हो, वहाँ शुद्ध स्वसमय तथा परद्रव्य की या पर्यायाधिक नय की दृष्टि से विचारणा हो, उसे परसमय ममयो । भाष्य स्वसमय-परसमय का लक्षण और रहस्य पूर्वगाथा मे परमात्मा के धर्म को समझने के लिए स्व-परसमय की जिज्ञासा प्रस्तुत की गई थी। इस गाथा मे उसी का समाधान किया है । वास्तव मे 'समय' शब्द अनेकार्थक और रहस्यमय है। अमरकोप के अनुसार 'समया शपथाचारकालसिद्धान्तसविदः' समय का अर्थ शपथ, आचार,काल (समय या प्रसग), काल का एक सूक्ष्मविभाग, सिद्धान्त एव धर्म तथा द्रव्यात्मा (आत्मा) इत्यादि है । यहां प्रमगवश तीन अर्थ 'समय' के हो सकते हैं- आत्मा, सिद्धान्त (आगम) और काल । इन तीनो की पृथक पृथक व्यापया इस प्रकार से है-विशुद्ध (कर्ममल से रहित) आत्मा का जहाँ अनुभव होता है, जिमगे आत्मानुभव की वाते की गई हैं। यानी आत्मा निश्चय से कर्म रहित, परभाव से रहित, अपने गुणो से परिपूर्ण, अनादि अनन्त, प्रक्ट ज्ञायक ज्योतिस्वरूप, एक, नित्य, सम्पूर्ण ज्ञानधन है, इस प्रकार शुद्ध आमा का अनुभव जहाँ होता हो, वहाँ स्वसमय समझना । इसे विस्तृतरूप मे यो कहा जा सकता है कि मोक्ष में आत्मिक दशा कमी होती हैं ? अर्थात आत्मा मोक्ष मे अपनी असली स्थिति मे कैसा रहता है, इसके अनुभव करने की जो बाते हो, वे सब स्वसमय की बाते हैं । यानी आत्मा का स्वभाव ऊध्र्वगामी होने से वह वान उसके अनुभव की होती है । आत्मा की अलग-अलग कौन-कीन मी दशाएँ होती हैं ? वह मूल स्वभाव में वसा रहता है ? ये उन्नतगामी (ऊध्र्वगामी) सब वाने स्वसमय की हैं । इसकी मूल विशुद्ध अवस्था में यात्मानुभव कैसा होता है ? उसका जहाँ। जहाँ वर्णन किया जाय, वहा-वहाँ स्वसमय की बात है, यह समझ लेना चाहिए। शुद्ध निर्मल आत्मा के गम्बन्ध में जितनी भी बात कही जाती हैं, वे मव १-किसी किसी प्रति मे 'पर परिछायडी' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है- जहा पर की प्रतिच्छाया (परछाई पड़ती है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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