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________________ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण १०६ मानता है कि मैने जो भी रात्कार्य किये, वे किसी कामनावृत्ति रो नहीं, केवन निप्कामभाव से अर्थात् प्रभुकृपा गे या प्रभुप्रीत्यर्थ किये हैं, उनके शुभ फल का श्रेय भी प्रभु को हो । इस प्रकार के समर्पण मे भक्त प्रत्येक शुभ कार्य निष्कामभाव से करता है तो अहता-ममता या स्वछन्दता की, वृत्ति किसी प्रकार प्रकार के बदले या शुभफल की आकाक्षा या अपेक्षा नही रह सकती। इस प्रकार के समर्पण मे अहकर्तृत्व, ममकर्तृत्व का त्याग हो जाने से भक्त प्रभु मे तन्मय, तल्लीन और तद्रप हो जाता है। इस प्रकार का तादात्म्य स्थापित करना और नि स्पृह वृत्ति रखना ही समर्पण का कार्य है। आत्मसमर्पण किसको किया जाय ? - आध्यात्मिक साधक के लिए आत्म-समर्पण करने की बात तो समझ मे आती है, परन्तु किसके समक्ष किया जाय? क्योकि जगत् मे देखा जाता है कि साधारण व्यक्ति अपने से विशिष्ट सत्ता, प्रभुता, शक्ति, और वैभव वाले शासक, सम्राट्, पदाधिकारी, शक्तिशाली, या वैभवणाली के आगे समर्पण कर देता है, विजेता के सामने पराजित अपने हथियार डाल देता है, वह स्वय को उन-उन विशिष्ट शक्तिशाली देवो या प्रभुओ के अधीन (Surrender) कर देता है। इसी प्रकार लोकिक व्यवहार भी कई ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि विशिष्ट देवो या दुर्गा, काली, भवानी, चण्डी, चामुण्डा, सरस्वती लक्ष्मी आदि विशिष्ट देवियो के आगे व्यक्ति नतमस्तक हो कर सर्वस्व-अर्पण करता है, नैवैद्य (चढावा) चढाता है। अथवा परमात्मा के नाम से कई रागी, द्वेषी, भौतिक ऐश्वर्य-सम्पन्न प्रभु-को सर्वस्व-समर्पण कर देता है। इसी बात को दृष्टिगत रख कर श्रीआनन्दघनजी आध्यात्म विकास-पथिक साधको के लिए इसी गाथा में आत्मार्पण की बात स्पष्ट करते हैं'सुमतिचरणकज आतम-अर्पणा, दर्पण जेम अविकार, सुज्ञानी ।"--"हे आत्मज्ञानी । अध्यात्म-विकास-तत्पर । दर्पण की तरह निर्मल (निर्विकार) श्रीसुमतिनाथ वीतराग (परमात्मा) के चरण मे आत्म-समर्पण करो।" : यहाँ प्रभुचरण को दर्पण के समान निर्विकार इसलिए बताया है कि जैसे दर्पण
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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