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अध्यात्म-दर्शन
सगनी तमाम मावा प्रवृत्तियो का गर्वतीभावन उत्सर्ग (त्याग) करने पर. मात्मा के चरणों में जानी बुद्धि, इन्द्रियां, मन, वाणी मादि मवलो ममपणा करना । मुनि बनने के बाद पादाधान के कारण नयम में विचलित होने पर मेधकुमार को जब श्रमण भगवान महावीर ने विभिन पुत्तियो द्वारा समझाया तो उसने अपनी भूल ग्वीकार कर ली और प्रायश्चित्त बारा वात्ममुद्धि करो. प्रभ महावीर के समक्ष पनिना मार ली कि "आज में जीवनपर्यन्त गिफ. बोस के सिवाय, मेरे ममग्न गापाग, गन बुद्धि-सन्द्रियादि मव नागको समपित, ये सब आपती आजा गे वाहर नहीं चलेंग।" आना मे ही धर्म है, नाना मे तप है, इसका भी आगय आत्मसमर्पण गे है। चार गरणी का स्वीकार करना भी आत्ममपंण के अन्तर्गत है।
वैष्णव-सम्प्रदाय मे प्रनुभक्ति की दृष्टि मे ममपंग करने को वात का उल्लेख भगवद्गीता एव भागवत आदि धर्मग्रन्यों में जगह-जगह दिया है। वहाँ 'सर्वम्ब अर्पण' का अर्थ यही किया गया है कि नूने जो कुछ सकार्य, सदविचार, मदाचार, सहव्यवहार या मनुष्ठान किये हैं, उन मवको प्रनसमर्पण कर । तेरे बुद्धि मन, इन्द्रियां, वाणी, आदि नव अवयव तया तेरे पास जो कुछ भी अपने माने हुए तन, मन, धन, साधन, परिवार, नन्लान, प्रतिष्ठा सम्प्रदाय आदि है, उन्हे प्रभु के चरणो मे नमर्पण कर दे, और कह दे 'इदं न मम' (यह मेरा नहीं है प्रभु आपका ही है)। ईश्वर-कर्तृत्ववाद की दृष्टि मे समस्त पदार्थ, गरीर, धन आदि भगवान् के दिये हुए माने जाते हैं, इमलिए ममर्पण करते समय भक्ति की भाषा में भक्त यही कहता है-'प्रभो ! आपकी दी हुई वस्तु आपको ही समर्पित करता हूं।" सर्वस्व-समर्पण' मे खाने-पीनेपहिनने ले कर व्यापार, आजीविका, अध्ययन करना, भोजन बनाना, आदि जो भी सत्प्रवृत्तियाँ है, उन सबमै ममत्ववुद्धि का त्याग करना बावश्यक होता है। यदि समर्पण नाटकीय तौर पर न हो तो समर्पणकर्ता यही
१ 'आणरए धम्मो, आणाए तवो' । २ अरिहते सरण पवज्जामि, सिद्धसरण पवज्जामि' आदि । ३ 'मर्पितमनोवृद्धि' (मेरे मे मन और बुद्धि को अपित कर) ४. तत् कुरव मदर्पणं (तरै ममम्म कार्यों को गेरे अर्पण कर) ५. त्वदीय वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव रामपंगे।