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अध्यात्म-दर्शन जडपदार्थों एव भौतिक आडम्बरो से चुन बायपूजा के ननकर में डाल देते हैं। भला, ऐसे लोगो को उन नकली तयारुथित नात्मनानियो, किन्तु जोपामको से क्या मिलेगा, जो न्बय ही आत्मदर्शन के यथार्थ प्रकाश में दचित हैं ? इसलिए वे कहते हैं-'ज्योति बिना जुओ जगदीगनी.” ___आत्मिक प्रकाश और परमात्मप्रकाश दोनों में अभिनना है । एक हो, वहाँ दूसरो का अस्तित्व होता ही है । अत परमात्मप्रीतिरूप धर्मपालन द्वारा परमात्मा के साथ अभिन्नता साधने के लिए पूर्वोक्त प्रकार में आत्मदर्शन (प्रभु. ज्योति) के प्रकाश में उस परमनिधि को ढूंढने का कार्य मर्वप्रथम करना चाहिए । यही इस गाथा का तात्पर्य है ।
जिन्होंने पूर्वाक्त प्रकार से आत्मदर्शन के प्रकाश द्वारा आत्मनिधि दृस्टिगोचर कर ली है, उनका स्वरूप अगली गाया मे बना कर उन्हे व उनसे सम्बन्धित क्षेत्र-काल-द्रव्यादि को धन्यवाद देते है -
निरमल गुणमणिरोहण-भूघरा, मुनिजनमानसहस, जिनेश्वर । धन्य ते नगरी,धन्य वेला घड़ी, मात-पिता-कुल-वश, जिनेश्दर !
॥ धर्म० ॥७॥
अर्थ प्रभो ! आप रोहणाचलपवंत मे उत्पत्र (जिन भगवान = धर्मजिन या शुद्धात्मा, निर्मल शुद्धरत्नो के समान जिनाज्ञा समतादि गुणरत्नयुक्त हैं, मुनिजनो पालक के शुम मनरूपी मानसरोवर के हंस के समान हैं । वह नगरी (रत्नपुरी या जिनमगवान् की जन्मभूमि) धन्य है । वह समय और घडी जब जिनेश्वर का जन्म हुआ था धन्य हैं । तथा वह माता पिता (सुबना माता और भानुराजा पिता) कुल (इक्ष्वाकु) और वश (क्षत्रिय) भी धन्य है, जहाँ भगवान् ने जन्म लिया था।
भाष्य
परमात्मा का स्वरूप एव उनके क्षेत्रकालादि को धन्यता । इस गाथा मे महात्मा आनन्दघनजी ने आत्मनिधि का सर्वया साक्षात्कार करने वाले परमात्मा (धर्मनाथ-जिन या प्रत्येक वीतराग) का स्वरूप और उनसे सम्बन्धित क्षेत्रकालादि की महिमा बताई है। जब व्यक्ति आत्मदर्शन करने के