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अध्यात्म-दर्शन
मासारिक भाव नष्ट हो कर मात्मभाव को जागृति हो जाती है। तभी इम अवस्था का अनुभव होता है । इस अवस्था मे तमाम वस्तुओं के गुणदोप देने जा सकते है, इसलिए वस्तु के अवश्य मूलस्वरूप की ओर उसकी दृष्टि रहती है, यही अवस्था गाक्षात्कार की है।
इस तुरीय अवस्था के समय जीव की जागृत और स्वप्नदशा चली जाता है। आत्मा तव केवलज्ञान-दर्शन का साधात्कार कर लेती है। तब उसका अनादि अनात्म-स्वभाव निद्रा-स्वप्न आदि प्रकृति नष्ट हो जाती है। इन दोनो अवस्थाओ के चले जाने पर फिर आत्मा उनको मनाने और वापिस मोड कर लाने का प्रयास नहीं करता। त्याज्य अठारह दोपो मे मे तीसरे दोष-निद्रादशा और चौथे दोप स्वप्नदशा के त्याग की बात आती है । वीतरागप्रभु इन ने दोनो दोपो का त्याग करके दो गुणो को अपनाया तो उपर्युक्त दोनो दोप रुष्ट हो कर चले गए। आपने उन्हें मनाने का प्रयास नहीं किया। आपके लिए यही शोभास्पद है।
समकित साथे सगाई कोधी, सपरिवारशु गाढ़ी। मिथ्यामति अपरावण जागी, घरथी बाहिर काढी, हो । म०४ ॥
अर्थ आपने तो परिवारसहित शुद्ध सम्यकत्व के साथ गाढ सम्बन्ध (सगाई) कर लिया, यानी शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) और उसके परिवार के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध जोड़ लिया। इस कारण मिथ्यामति (सत्य को असत्य मानने वाली बुद्धि) को अपराधिनी (गुनहगार) जान कर घर (मात्मरूपी गृह या मनमन्दिर) से बाहर निकाल दी।
'भाष्य
प्रभु ने मिथ्यात्वदोष कसे निवारण किया.? प्रभो ! अपने पांचवें मिध्यात्वदोप का निवारण कमे किया ? इसकी कहानी भी आश्चर्यजनक है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के साय मोहनीयकर्म अवश्य होता है, जिसकी मूल प्रकृति दो हैं-मिथ्यामति और मिथ्याविचारणा । प्रभु (शुद्ध आत्मा) जब आत्मभाव मे . स्थिर होते हैं, तब म्वपर की यथार्थ प्रतीति होती है, और तभी से वे अपने कुम्बियो के साथ