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________________ जध्यात्म-दन परमात्मा की गेवा तो बहुत आगान है, तुम लोगो ने मे बहन कठोर और अगम्य बना दी है, ममे त्याग के तल में कुछ भी माना-धन्ना नहीं है, उन्म श्रीआनन्दघनजी असलियत बताते हुए कहते है मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन अगम अनुप । देजो कदाचित सेवक-याचना रे, आनन्दघन-रस-रूप ॥ संभव०॥६॥ अर्थ मुग्ध (अज्ञानी, भोले, वालजीव या अतत्त्वदर्शी, नासमम) लोग परमात्मसेवा को आसान मान कर उसे अपना लेते हैं। मगर परमात्मसेवा अगम्य (प्रत्येक व्यक्ति द्वारा आसानी से जानी न जा सकने योग्य) और अनुपम (वेजोड़) है । आनन्द के घनरसरूप प्रमो ! मेरी आपसे प्रार्थना है कि भविष्य मे कभी मुझे ऐसी अद्वितीय परमात्मसेवा देना । भाष्य मुग्ध लोगो को दृष्टि मे परमात्मसेवा आसान मुग्ध मे यहाँ अभिप्राय है-उन अनत्त्वदर्शी लोगो मे, जो कार्यकारणभाव का गहगई मे कोई विचार नहीं करते, जो लकीर के फकीर बन कर अपनी बुद्धि मे परमात्ममेवा के बारे में नहीं, सोचते, अथवा जाडम्बरपगवण लोगो की चकाचौध मे पड कर भयादि के त्याग, नप या स्वभावरमणस्प ज्ञानदर्शनचारित्र मे पुम्पार्थ करने की मुख्य वात को उडा कर उपेक्षा करके केवल नानने-गाने और कीर्तनजमादि करने की आमान बात पर मुग्व है, या जो नाममस और भोलेभाले लोग है, जिनमे लबी समझ नहीं है, तयाकथित गुरु ने जो भी मार्ग पकडा दिया, उमे परमात्मा की सेवा-भक्ति मान कर च नने वाले बालजीव है। ऐसे विवेकमूह लोग परमात्मसेवा को बहुत ही आसान समझ कर अपना लेते हैं। वे यह नहीं सोचते कि परमात्मभक्ति केवल नाच-गा कर या उनका नाम जोर-जोर से रट कर उन्हें रिझाने का प्रदर्शन करने मे या चढावा चढाने या प्रसाद वाटने या उनके प्रतीक के आगे कोरे हाय जोड देने या उनका गुण गान करने मान गे अथवा उनकी नकल कर लेने से सिद्ध नहीं होती परमात्ग- सेवा के लिए जो वास्तविक कारण है, उन्हे अपनाने पर ही वह सिद्ध
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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