________________
परमात्मा की सेवा
७५
• अव्यक्तशक्तिवादियो का मत भी लगभग भक्तिवादियो जैसा ही है। वे केवल देवी या अव्यक्तशक्ति अथवा प्रकृति को रिझाने, प्रसन्न करने और उससे वरदान मांगने का प्रयास करते हैं। अपनी आत्मा द्वारा कोई भयादि के त्याग, अहिंसादि के पालन या आत्मरमणरूप पुम्पार्थ की कतई जरूरत महसूस नहीं करते। ' - - एकान्त नियतिवादी भी कालादि अन्य चार कारणो का अपलाप करते हुए या आत्मारूपी उपादानकारण के प्रति उपेक्षा करते हुए कहते हैं-'जो कुछ होना होगा, वह हो ही जायगा। परमात्मसेवा विधाता ने (या भाग्य मे) लिखी होगी तो हो जायगी। हमारे त्याग, तप व्रत, नियम, सयम या स्वभावरमण मे पुरुषार्थ आदि करने से क्या होगा? इन सब चक्करो में पड़ने की क्या जरूरत है ? यही हाल एकान्तकालवादी, एकान्तस्वभाववादी, एकान्त नियतिवादी, एकान्तकर्मवादी, या एकान्तपुरुपार्थवादी (क्रियाकाण्डरत)' लोगो का है। वे भी परमात्मासेवारूप कार्य के लिए अपने एक-एक कारण को ले कर उपादानकारणरूप आत्मा को शुद्ध बनाने या अन्य विभिन्न प्रकार के निमित्तकारणो की आवश्यकता नही समझते। एकान्तपरमात्माश्रयवादी तो लगभग आलस्यपोपक-से होते है । मालसियो का जीवनसूत्र तो यही है, "अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम" । स्पष्ट है कि वे भी परमात्मा को ही सव कार्यों का दारोमदार मानते हैं। परन्तु आखिर जव वे अपने ही इस मत के विरुद्ध चलते हैं तो उन्हें घूम फिर कर कार्यकारणवाद की मान्यता पर आना ही पड़ता है।
इसलिए श्रीआनन्दधनजी का मुख्य स्वर यही गूंज रहा है कि जो लोग परमात्मसेवारूप कार्य को पूर्वोक्त उपादान या निमित्त कारणो के बिना ही कर लेने की झूठी जिद्द ठानते हैं, या इस मिथ्याग्रह के शिकार है, वे अपनी मान्यता की झूठी दुहाई देते है या उनका कथन महज वकवास है। अथवा 'वदतो व्याघात' न्याय के अनुसार अपने ही मुह से अपनी वान का खण्डन है, या फिर साम्प्रदायिक मत के दुराग्रह का मतवालापन है।
कुछ लोग पूर्वोक्त गान्यता के दुरभिनिवेशवश यह कह बैठते है कि