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________________ अध्यात्म-दर्शन अकुशलता होती है, वहां तय गोत्र मान, माया, लोग आदि मानगिक विकारो को उनके अगली रूप में यह पहिनान नही गन्ना, रागग के यथार्थरूप को न जानने के कारण प्रणय (दाम्पत्यप्रेम) साम्प्रदाचित वजानीय मोह नया राष्ट्रान्यता आदि को उपादेश मान लेता है, अतत्वाभिनिवेश का शिकार वन कर मसार के गाउरिया प्रवाह में बह जाता है, ऐसी स्थिति में आनाभिमु उता न हो कर गगाराभिमुखता ही अधिक रहती है। किन्तु जय उक्त अकुगल चित्तवृत्ति मा ह्रास हो जाता है, तो उनके मोह, कपाय आदि का ह्रास हो जाता है, यह शरीर, चित्त, प्रन्द्रियों आदि पर नियन्त्रण कर सकता है, शरीर, पित्त, इन्द्रियो आदि का स्वभावरमणरूप धर्म मे सदुपयोग कर सकता है, वह नर्मक्षय करने मे कारणभून गमताभाव को अपना लेता है ; वन्तु के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है, क्रोधादि रिकारो या रागद्वेपो के स्वरूप ने भनीभांति परिचित हो जाने के कारण, उनमे होने वाली भारी हानि को देख कर वह अपने स्वरूप में रमण करने लगता है। उने आध्यात्मिक विकास में जीवन की सार्थकता प्रतीत होने लगती है। पापम में वह सहना लिपटता नहीं, बल्कि पापकर्म का हात कर देता है । मकुगन चित्त का ह्रास ऐसा प्रवन निमित्त है, जिसके कारण नाधक की म्बन आध्यात्मिक उन्नति होती रहती है। मरे अर्थ के अनुसार अकुशल-अपचय यानी, चेतना (आत्मा) में मे पापकर्मों या अशुभ कर्मों का हान हो (घट) जाता है। अर्थात् जब तक दुरे या अशुभकर्म रहते हैं, तब तक आत्मा की परभावो में, विशेषत. अशुभ परभावो में रमण करने की वृत्ति बनी रहती है , वह पापकर्म करने में ही जीवन का सच्चा आनन्द मानता है। किन्तु आत्मा में कुशलता प्राप्त होने पर वह पापकर्मों को बहुत ही कम देता है, उसके अशुभकर्मो की जडे हिल जाती हैं। उसकी चेतना आत्माभिमुखी. हो कर संसाराभिमुखता या स्वार्थान्धता वे कारण होने वाले पापकर्मों को क्षीण कर देती है। यही उनकी आध्यात्मिक प्रगनि का मापदण्ड है। - - तीसरा निमित्त : आध्यात्मग्रन्यो का श्रवण, मनन और परिशीलन वास्तव मे व्यक्ति के जीवन मे जव आध्यामिक विकास होना है,
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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