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परमात्मा की सेवा
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काया मे ' एकस्पता हो, जो सरलता और निश्छलता, निस्पृहता और नम्रता की मूर्ति हो, बड़े से बडे पापियो के मन में स्थित पाप जिसके दर्शन से ही दूर भाग जाते हो, वही साधुमना पुस्प है। मतलब यह है कि परमात्म-सेवा की प्रथमभूमिकाप्राप्त साधक को ऐसे महान् साधुपुरुप का सत्सगरुप निमित्त प्राप्त हो ही जाता है । जो आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग पर वढना चाहता है, उसे वैमे निमित्त प्राय मिल ही जाते हैं ।
दूसरा निमित्त . चित्तवृत्ति मे अकुशलता का त्याग ' आत्मसाधना में प्रगति हो जाने की दूसरी परख यह है कि उक्त साधक की चित्तवृत्ति मे अकल्याणकारी अथवा खराव परिणामो-अध्यवसायो (या सकल्पविकल्पो) का अपचय=क्षय या ह्रास हो जाता है अथवा अकुशल शब्द का अर्थ अशुभकर्म या पापकर्म भी होता है, इसके अनुसार 'चेत' शब्द को छोड कर अर्थसंगति इस प्रकार विठाई जा सकती है कि उसकी आत्मा मे अशुभ=पापकर्म घट जाते है, कम हो जाते हैं अथवा क्षीण हो जाते हैं। ' चित्तवृत्ति या चित्त की परिणाम (अध्यवसाय) धारा अकुशल (अविवेकी या विकृत) कैसे बन जाती है ? और उसका ह्रास कैसे हो जाता है ? कुशल चित्तवृत्ति कैसी होती है ? वह साधक की साधना मे कितनी उपयोगी उपलब्धि है ? इस सम्बन्ध मे विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होगा कि अकुशल चित्तवृत्ति के कारण स्पर्ण, 'रस, घ्राण, कर्ण और नेत्र, इन पांचो इन्द्रियो के अनुकूल विपयो को देख कर वह तुरन्त ललचा जाएगा, उनमे आसक्त हो कर उनके भोग में अनुकूल, किन्तु नतीजे मे भयकर दुखदायी विपयो को भोगने के लिए तत्पर हो जाएगा, हितपी व्यक्तियो के मना करने पर भी वह उनसे विरक्त नहीं होगा, उसका चित्त उक्त विषयो को पाने के लिए तैयार हो जाएगा, उनके वस्तुस्वरूप का सही मूल्याकन वह नही कर पाएगा। मतलब यह है कि जहाँ तक व्यक्ति का चित्त इस प्रकार का अकुशल रहता है, वहां तक उसमे मसार की वासना कम नहीं होती, शरीर अथवा जडवस्तुओ का और चेतन का परस्पर सम्बन्ध कितना, कैसा और कहाँ तक है ? इसका ज्ञान न होने से सिर्फ सुनी-सुनाई बातो से वह थोडा बहुत जानता है, उमे इन्द्रियभोगो मे जीवन की सार्थकता दृष्टिगोचर होती है। जहाँ तक