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अध्याला-दर्शन
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जिन पर में उगे आध्यागिय विकागपति के प ग पहिलाना जा सकता है।
प्रथम प्रेरक निमित्त : पापनाशक साध में परिचय ऐमा जाध्यात्मविकानपथिक अतीन जिज्ञासु च नम्र होता है, वह अपने आंगिक ज्ञान के मद मे आ कर अप नही बनता । जन उसे नगे-नय जान की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण में आगे बले. हा पापनाना एवं धर्म (स्वभाव) मे लीन म्बपरमुक्तिगाध्य, माधुओं मे परिनय का योग गिल मिल जाता है, उनका सत्मंग करके वह अपने बाप नान में, नया तन्यो के अनुभव में वृद्धि करना जाता है। जो भी, जहां भी ऐगा ग्यमावरमणमाधक या परमात्मभावलीन रवपर-पायाण साधनः पुम उसे मिल जाने है, उनकी मगति वह अवश्य करता है। वास्तव में, गिमी मी व्यक्तिः गी आध्यान्मिक प्रगति का मापदण्ट बाहावेप या बाह्य प्रियाग नहीं होती, यह होता है-ज्ञान का 'भण्डार भरने अथवा निश्नयदृष्टि में बहे नो अपने सुपुप्त ज्ञान को जागृत व प्रगट करने के उद्देश्य में, किसी प्रकार की न्वाथ भावना या स्पृहा से दूर रह कर अभ्यात्मज्ञान के अनुभवी, शुद्धान्मविज्ञान मे पारगत, अशुभकार्यों या अगुभभावो (पापो) को नष्ट करने वाले गुण का मत्सग, सम्पर्क या परिचय । मिमी व्यनि को मोहवन में ही उसमें अमली जीवन का पता लगाया जा सकता है । 'समान-शीत-व्यसनेषु सत्यम्' इस नीतिसूत्र के अनुसार एक मरीखी आदत, समान पील, स्वभाव और तुल्य न्यमन वालो की ही परम्पर एक दूसरे के साथ पटरी वैनी है। दीर्घ परिचय, चिरकालस्थायी मैत्री, या स्थायी सगति समान भूमिका वाले लोगो की ही निभती है । उक्त सद्गुणी साधुपुरुष का परिचय (लम्बे अर्म तक सहवाम या सम्पर्क-मेलजोल) साधक के आध्यात्मिक विकास का परिचायक होता है। वास्तव में ऐमे पापवृत्तिनाशक सन्तपुरप के नमागम का योग मिल जाने से उसकी पापवृत्ति स्वत नष्ट हो जाती है, वुद्धि की जडता दूर हो जाती है, वाणी मे मत्यता आ जाती है, ऐसे पुरपो के सन्मग से साधक अपनी इज्जत मे चार चाँद लगा देता है, जीवन में उन्नति की राह पा लेता है। चित्त मे आतध्यान-रौद्रध्यान या चिन्ताएं काफूर हो कर प्रसन्नता पैदा होती है, ऐसे व्यक्ति का जीवन सर्वांगीण बनता है। जिसके मन-वचन