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परमात्मा की सेवा
जिनाना और ममता बढ़ती जानी है और आक्षेपबुद्धि, कदाग्रही वृनि, ईर्णा प्रत्येक बान को देहबुद्धि मे गोनने की स्वार्थवृत्ति घट जाती है।
म प्रकार पूर्वोक्त छही उपलब्धियां परमात्मगंवा की पयम भूमिका प्राप्त होने पर माधक को लगन हो जाती है।
प्रथम-भूमिकापूर्वक परमात्मसेवा मे प्रेरकनिमित्त पूर्वोक्त गाथा में कर्मक्षय एव मोक्षप्राप्ति अथवा स्वभावरमणता से प्रमश मुक्ति की दिशा में प्रस्थान में गम्बन्धित ६ फलो का उल्लेख श्रीआनन्द घनजी ने किया । अब उन फलो की प्राप्ति मे प्रेरक निमित्तकारण के सम्बन्ध मे वे अगली गाथा मे कहते हैं---
परिचय पातक-घातक साधुशुरे, अकुशल-अपचय चेत । अन्य अध्यातम श्रवण-मनन करी रे, परिशीलन नय हेत।।
समव० ॥४॥
अर्थ ऐसा होने पर साधक को पापों के नाश करने वाले साधुओ का परिचय होता जाता है। उसके चित्त में अकल्याणकारी अशुभसंकल्पो की कमी होती जाती है और उसे आत्मा के सम्बन्धों मे विचार करने वाले आध्यात्मिक ग्रन्यो के श्रवण एव मनन द्वारा नंगम आदि समस्त नयो, हेतुओं या उपादानादि कारणो का अनाग्रहबुद्धिपूर्वक परिशीलन (बार-बार अभ्यास) करने का योग मिलता जाता है।
भाष्य
प्रेरक निमित्तो की प्राप्ति जब माधक चरमावर्त, चरमकरण, भवपरिणतिपरिपाक, दोप-निवारण, सम्यग्दृष्टि और प्रवचनवाणी की प्राप्ति, इन उपलब्धियो का अनायास लाभ पा लेता है, तब उसकी आध्यात्मिक प्रगति वटती जाती है, किन्तु सामान्य जनता उनकी आध्यात्मिक प्रगति की परख नहीं कर पाती। वह ऐसे माधक को चुनी या पागल-मा कह देती है। परन्तु श्रीआनन्दघनजी ने ऐसे सम्यग्दृष्टिप्राप्त साधक की आध्यात्मिकप्रगतिसूचक कुछ वातो का निर्देश किया है, जो प्रेरक निमित्त के रूप मे उमे अनायास ही मिलती जाती है।