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अध्यात्म-दर्शन
हनी प्रकार आत्मा और पुद्गल के, चेतना और मोतिक वस्तु के अयथा पर आत्मा का गरी आत्माओ ने गाय गम्बन्ध ने पिपय में नया बग्न और आ मा का गम्बन्ध टूट जाने के बाद आत्मा बी होने वाली स्थिति सम्बन्ध में प्रत्येक दर्शनकार की मान्यता भिन्न-भिन्न है । प्रत्येका दर्जन प्राय. अपनी ही बात को गत्य मान कर आग्रहपूर्वक पकडे रखता है। परिणामस्वम्प वे परमात्मा (आन्मा) के यथार्थ दर्शन के अन्वेपण की उदान भावना के बदते आत्मा (गरमा मा) के सम्बन्ध में अपनी बात को सच्ची म्यापिन पाने का प्रयास करते है। उमलिए न दशनी के गब्दजालरूप महारण्य में पग पर प्राणी यथार्य (नम्यग् दर्शन नहीं कर पाता ! यही कारण है कि श्रीआनन्दधनजी ने यथार्यदर्शन को दुर्लभ बताया है।
अथवा उपर्युक्त पयो, वादो, मतों या दर्शनो का एकान्त आग्रह, नापेक्षना रहित दृष्टि, पूर्वापरविरोध न हो, तभी सापेक्ष दृष्टियुक्त, कान्त-आग्रहरहित, पुर्वापरमगत, विशुद्ध, पक्षपातरहित और अनेकान्तवारविगुद्ध परमात्मदर्शन (तत्त्वज्ञान का शुद्ध श्रद्धान) हो सकता है। परन्तु पूर्वोक्त मतो, पयो या दर्शनी में ये लक्षण न होने से मात्रक के लिए परमात्मदर्शन या तत्त्वार्यश्रद्धानरूप दर्शन अथवा शुद्ध आत्मदर्णन अत्यन्त दुर्लभ है । अथवा आत्मा के द्वारा बार-बार परभावो मे पड जाने के कारण या छही द्रव्यो के यथार्थ वस्तुतन्व (स्वरूप) पर म्वत्वमोह-कालमोह व पूर्वाग्रह आदिवश न टिक सकने के कारण परमात्मा (सत्य) के दर्शन दूरातिदूर होते जाते हैं। इसलिए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अन्तर से स्वर फूट पड़ा"प्रभो । मोह के अन्धकार से मेरे नेत्र आवत हो गए। इसी कारण मैंने आज तक कभी एक बार भी आपका दर्शन नही किया । मैं सोच रहा था कि इग समय मर्मस्थान को बींधने वाले अनेक अनर्थ (अनिष्ट कष्ट) मुझे पीडित कर रहे हैं, अगर आपका दर्शन हो गया होता तो ये मुफे कष्ट देने को उद्यत क्यों
१ नून न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो । सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्मावियो विधुरयन्ति हि मामन :, प्रोद्यत्प्रवन्धगतय. कथमन्ययते ॥
-कल्याणमदिर स्तोत्र