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परमात्म-दर्शन की पिपामा
एकान्त आग्रही बन कर अपनी मानी हुई बात को सच्ची और दूसरे की बात को विलकुल मिथ्या सिद्ध करने मे तनिक भी नही सकुचाते। यहाँ तक कि अपनी बात को भगवान् के द्वारा बताई हुई सिद्ध करने का प्रयास करते हैं । अत इन वादो, मतो, पथो या सम्प्रदायो के झझावातो मे साधक सहसा निर्णय नहीं कर पाता कि कौन-गा पथ, मन, या धर्मसम्प्रदाय मुझे परमात्मदर्शन करायेगा ? कौन-सा दर्शन सत्य है ? और कभी-कभी तो वाह्य आडम्बरो या वाक्पटु लोगो के मोहक शब्द जाल मे साधक फरा जाता है, परमात्मदर्शन की धुन में एकान्त और मिथ्या दर्शन के चक्कर में पड़ जाता है, अथवा भोगविलास, रागरंग या हन्द्रियविषयपोपक वातावरण की चकाचौध मे परमात्मदर्शन भूल जाता है, किसी दूसरे वनावट, दिखावट व सजावट से ओतप्रोत अमुक व्यक्ति के दर्शन को ही परमात्मा का दर्णन समझ लेता है, अथवा अनेक मान्यताओ एवं मतो के अन्धड में व्यक्ति भ्रान्तिवश कही का कही भटक जाता है। इसी कारण परमात्मा के दर्णन या परमात्मा का दर्शन बहुत दुर्लभ है।
विश्व में प्रचलित विविध दर्शनो को देखते हैं तो वे भी अपनी,अपनी मान्यताबो के एकान्त आग्रह मे फसे हुए है। वे दूसरे दर्शनो के दृष्टिकोणो को समझ कर समन्वय करने या अपने मताग्रह को छोड़ने के लिए जरा भी तैयार नहीं है । यहाँ प्रमगवश आत्मा के सम्बन्ध मे कुछ दर्शनो के एकान्तदृष्टिपरक मत देखिए-साख्य, योग और वेदान्तदर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं । वे कहते हैं कि जैसे ऐरन पर हथौडे की चाहे जितनी चोटे पड़ें, वह स्थिर रहता है, वैसे ही देश, काल आदि के कितने ही थपेडे खाने पर भी आत्मा मे जरा भी परिवर्तन नही होता, वह विलकुल स्थिर रहती है। इस मान्यता मे उपर्युक्त तीनो दर्गन बिलकुल भी परिवर्तन नहीं करने और न ही अपनी जानदृप्टि खोल कर सत्य के दूसरे पहलू को देखने-परखने का प्रयास करते है। इसी प्रकार नैयायिक और वैशेपिक सुख-दुख, ज्ञान आदि को आत्मा के गुण मानते अवश्य है, लेकिन आत्मा को एकान्त नित्य और अपरिवर्तनशील (अपरिणामी) मानते है। .
बौद्धदर्शन आत्मा को एकान्त क्षणिक, परिणामी और निरन्वय परिणामो का प्रवाहमात्र मानते हैं।