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वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिवान
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नहीं हो सकते । सोना तीनो काल मे सोना ही रहता है । अत. सोन मे भारीपन, पीलेपन या चिकनेपन अथवा विभिन्न गहनो की कल्पना करना पर्याय दृष्टि है । पर्यायदृष्टि को गौण कर दे, उसका इस समय उपयोग न करें तो वही मोना मबमे एकरूप अभेदरूप प्रतिभासित होगा ।
पदार्थ के असली स्वरूप को समझने की कु जी किसी भी पदार्य के वास्तविक वस्तुस्वरूप को समझने के लिए द्रव्याथिक नय की दृष्टि को मुख्य रखे तो उसके पयिो की दृष्टि गौण हो जायेगी। ऐसा करने मे पर्याय भी उस द्रव्य मे समाविष्ट हो कर द्रव्यरूा ही गिने जायेंगे। इसी प्रकार पर्यायायिक दृष्टि को मुख्य रख कर देखें तो द्रव्य गौण हो जायेगा, वह प्रतिभासित नहीं होगा। ऐसा करने से द्रव्यत्व भी पदार्थ के एक प्रकार के पर्यायरूप मे गिना जायेगा। द्रव्याथिक दृष्टि को सामान्य, शक्ति, द्रव्य, अभेद इन शब्दो से समझा जाता है, जब कि पर्यायाथिक दृष्टि को विशेप, व्यक्ति, स्वभाव, गुण, धर्म, पर्याय, भेद आदि शब्दो से समझा जात है , भारीपन, चिकनापन या पीलापन सोने से अलग वस्तु नही है। कोई सोना खरीदता है तो उसके साथ उसके ये गुण आ ही जाते हैं । यह सोने के विषय मे स्वसमय है। सोने के तौल, रग, गुण की दूसरे के गुणो के साथ तुलना करते समय सोना गौण हो जाता है। परन्तु सोने के गुण मुख्यतया ध्यान में रखे जाते हैं । पर्यायाथिक दृष्टि की मुख्यतया के समय द्रव्यार्थिक दृष्टि गौण होती है, परन्तु उपचार से उसमे गौणरूप से द्रव्याथिक नय की दृष्टि भी होती है, इसी तरह द्रव्याथिक नय की दृष्टि के समय गोगरूप से उपचार से पर्यायाथिक नय की दृष्टि मुख्य होती है। अगर ऐसा न हो तो वे दोनो नय एकान्त होने से नयाभास वन कर मिथ्या सावित हो जाते हैं । अत एक नय मे गौण रूप से उपचार से दूसरा नय होता ही है, तभी नय की सापेक्षता टिकती है और वे सुनय वनते है । इस प्रकार आत्मार्थी को द्रव्यदृष्टि और पर्यायष्टि भलीभांति समझ लेनी चाहिये ।
आगे की गाया मे इसी विपर को आत्मा पर घटाते हुए कहते है - दर्शन-ज्ञान चरण थकी अलखस्वरूप अनेक रे। निर्विकल्प रस पीजिये, शुद्ध निरजन एक रे॥ धरम०॥५॥ ।