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________________ २२ : श्रीनेमिनाथ-जिन-स्तुति ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता (तर्ज धणरा ढोला, राग-मारुणी) अष्टभवान्तर वालही रे, तुं मुझ आतमराम, मनरा व्हाला! मुगति-स्त्रीशु आपणे रे, सगपरण कोई न काम, मनरा०। १॥ अर्थ राजमती श्रीनेमिनायस्गमी से कहती है-"आठ भवों (जन्मों) तक मैं आपकी प्रियतमा पत्नी थी और आप मेरी आत्मा (आत्मा के अन्दर के भाग) मे रमण करने वाले या सतत प्रेमपूर्वक आत्मा मे स्थान = आराम पाये हए नाय थे। हे मेरे मन के प्रियतम ! मुक्तिरूपी स्त्री (शिवसुन्दरी) के साथ अपनी सगाई-सम्बन्ध जोडने (वाधने) से कोई फाम (प्रयोजन) नहीं है। भाष्य इस परमात्म-स्तुति का प्रयोजन और रहस्य इस बावीसवें तीर्थकर श्रीअरिष्टनेमिनाथस्वामी की स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने जो विषय छेडा है, उसे ऊपर से देखने वाले को यही प्रतीत होता है कि सासारिक पति-पत्नी का कोई प्रेम सवाद और खासकर पत्नी की ओर से पति को उपालम्भ और उपदेश दिया जा रहा हो इस प्रकार का दाम्पत्यराग है, इसमे आध्यात्मिकता का एक छोटा भी नही है। परन्तु इस स्तुति का गहराई से अध्ययन करने पर बताया गया है कि इसमे ध्येय (परमात्मा) के साथ ध्याता की एक्ता सततध्यान के कारण जुडती है, लेकिन बहिर्मुखी चित्तवृत्ति की तरफ आत्मारूपी पति के आकर्षित हो जाने पर परमात्मा से दूरी बढती चली जाती है । प्रारम्भ मे १० गाथाओ तक श्रीराजीमती के द्वारा श्रीनेमिनाथ स्व मी को मोहाविष्ट, रागातुर एव सांसारिक प्रीति की ओर आकृष्ट करने के लिए उपालम्भ-वचन आदि युक्तियो से प्रयत्न किया जाता है, फिर एक नया
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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