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________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४८५ पार हो जाता है । समय-चारित्र की माग की है, इससे फलितार्थ निकलता है कि वे समयपुरुष की चरणमेवा के पूर्वोक्त उपायो को जानते हैं, केवल तदनुसार आचरण करना ही शेष है, वह आचरण (चारित्र) ही अतल समुद्र को पार करने के समान वहुत दुष्कर है, कोई सद्गुरु भी साथ मे मार्गदशक नहीं है, इसलिए प्रभु का हाथ पकड कर उनके अन्तनिर्देश मे वे चारित्ररूपी महासमुद्र को पार होने के लिए उद्यत है । देखिए, कव उनकी आशा पूर्ण होती है । सारांश इस स्तुति मे वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक के लिए सर्वप्रयम छह दर्शनो को जिनवर के अंग मान कर उनको यथायोग्य स्थान पर स्थापित करना जरूरी बताया है। यहाँ तक कि लोकायतिक दर्शन को भी जिनवर का उदर माना है। इस प्रकार की विवेकपूर्ण श्रद्धा के स्वीकार के बाद छह दर्शनो को नदियो की और जनदर्शन को समुद्र की उपमा दे कर जनदर्शन के उत्तमाग होने की बात को और पुष्ट किया है । इसके बाद चरण-उपासना को नया मोड देकर उपास्य के अनुरूप उपामना की उच्चरीति बताई है। इसके पश्चात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनो की उपासना को चरणोपासना मे गतार्थ करके उसकी उत्तम विधि बताई है । तदनन्तर चारित्र की उच्च कक्षा पर पहुँचने के लिए मार्ग-दर्शक सुगुरु के अमाव का खेद व्यक्त करके प्रार्थना की है। कुल मिला कर वीतरागप्रभु के चरणउपासक बनने का सुन्दर तत्त्व श्रीआनन्दघनजी ने इस स्तुति मे मे प्रगट कर दिया है। - -
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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