SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८४ अध्यात्म दर्शन - अर्थ पूर्वोक्त अभावद्वय के कारण करयुगलवद्ध हो कर हम माप जिनवर के समक्ष (शुद्धहृदय से) निवेदन करते हैं, हमे समयपुरुष की या सिद्धान्तसम्मत (शास्त्रोक्त) रुप जिनवर की शुद्धचरणसेवा देना (पवित्र चारित्रसेवन की कृपा करना, ताकि हम भी आनन्दघन (परमानन्दस्वरूप) पद प्राप्त कर सकें। भाष्य भक्त की प्रभु वीतराग से चरणसेवा की प्रार्थना भक्त के हृदय मे जब विषाद का भार बढ जाता है, तब उसे हलका करने के लिए वह भगवान् ने सामने अपना दिल खोलता है । इस प्रकार भगवान् के सामने हृदय की बात कह डालने से हलकापन तो महसूस होता ही है, कभीकभी हृदय का कालुप्य धुल जाने से निर्मल अन्त करण पर अद्भुत आध्यात्मिक प्रेरणाएं अकित हो जाती है, उस स्वत प्रेरणा को भक्त प्रभुप्रेरणा मान कर शिरोधार्य करता है। यही बात यहां श्रीआनन्दघनजी के सम्बन्ध मे है। वे शुद्ध अन्त करण से करबद्ध हो कर मन मे प्रभु की छवि अकित करके खडे हुए और प्रभु के सामने अपने अन्तर की पुकार करने लगे- मेरे हृदयेश्वर । अव जव कि मुझे सद्गुरु की प्रेरणा मिलने का कोई अवसर (Chance) नहीं दिखता और उसके अभाव मे मेरी साधना शुद्धमोक्षदायक नहीं हो सकती, तव निरुपाय हो कर आपसे नम्रतापूर्वक प्रार्थना करता हूं कि मुझे आपके (वीतरागप्रभु के समयपुरुप के) शुद्ध चरणो (स्वरूपरमणस्प या स्वात्मानुभवरूप चारित्र) की सेवा (आराधना) का अवमर दें, जिससे मैं सच्चिदानन्दरूप (आनन्दघन) प्राप्त कर सकें। यहाँ श्रीआनन्दघनजी ने प्रभु से शुद्ध चारित्र की माग की है, इसके पीछे निम्नोक्त कारण प्रतीत होते हैं एक तो यह कि शुद्ध चारित्र होगा, वहाँ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान अवश्य होंगे ही। परन्तु 'अगर वे सम्यग्ज्ञान मागते तो मम्यक्चारित्र नही प्राप्त होता । इसलिए सम्यक्चारित्र मागने के साथ-साथ उन्होने उक्त दोनो रत्न मांग लिए हैं । दूसरा कारण यह है कि प्राणी को तथाप्रकार के शुद्ध चारित्र की प्राप्ति के लिए अर्धपुद्गलपरावर्तन-काल शेप रहे तव तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। किन्तु प्रभुकृपा हो जाय और अन्त करण मे तीव्र सवेग प्राप्त हो जाय तो इतना लम्बा काल भी झपाटे के साथ
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy