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वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक
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ईस्वीमन्-पूर्व छठी-सातवी शताब्दी मे कपिलमुनि और साख्यदर्शन की स्थापना मानते हैं । परन्तु जैन-आगमानुसार तो कपिल आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव समकालीन माने जाते हैं, इस दृष्टि से तो हजारो लाखो वर्ष पूर्व इनका अस्तित्व सिद्ध होता है । जैन आगमिक कयन पर से प्रतीत होता है-कपिलमनि मरीचि मुनि के शिष्य थे, । मरीचिमुनि निर्ग्रन्थमुनिधर्म के आचार का पालन पूर्णतया न कर सकने के कारण मुनित्य की स्मृति के रूप में पृथक् वेष धारण करके लगभग उन्ही सिद्धान्तो की प्ररूपणा करते हुए भगवान् ऋषभदेव के साथ विचरण करते रहे । अपने द्वारा प्रतिबोधित शिज्यो को भी वे ऋषभदेवप्रभु के पास भेजते थे। किन्तु जब कपिल [शिष्य] आया तो उन्हे मरीचिमुनि का वेश और उपदेश दोनो रुचिकर लगे, इस कारण शिष्यलालसावश कपिल को अपना शिष्य बनाया । गृहस्थाश्रमपक्ष मे मरीचिमुनि श्रीऋषभदेव प्रभ के पुत्र भरतचक्रवर्ती के पुत्र थे और भ० महावीर स्वामी के जीवरूप मे अनेक भवो मे भटकते हुए तीसरे भव मे तीर्थकर नामकर्म बांध कर अन्त मे भ० महावीर स्वामी के रूप मे २४ वे तीर्थकर हुए और मोक्ष मे पधारे । अत जैनागमो के अनुसार साख्यदर्शन-सस्थापक कपिल मरीचिमुनि के शिष्य सिद्ध होते हैं।
जो भी हो, हमे इतिहास की गहराई मे न उतर कर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से ही साख्यदर्शन पर विचार करना है । तत्वज्ञान की दृष्टि मे निश्चयनय की अक्षा से जैनतत्त्वज्ञान द्वारा मान्य आत्मा की बात साख्यदर्शन मे हुबहू उनरती है। जैनदर्शन की निश्चयदृष्टि से साख्यदर्शन बहुत ही निकट है। साख्यऔर योग दोनो दर्शन तत्त्वो की दृष्टि से एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं। योगदर्शन एक ईश्वरतत्त्व को अधिक मानता है, जबकि साख्यदर्शन ईश्वर- । तत्त्व को अलग से नहीं मानता, पुरुष [आत्मा] मे ही उसका समावेश कर लेता है। इसी कारण दर्शनशास्त्र के इतिहास मे ये दोनो क्रमश निरीश्वरसाख्य और सेश्वरसाख्य के नाम से प्रसिद्ध हैं ! असली साख्य निरीश्वरवादी है । जैनदर्शन की तरह वह ईश्वरतत्त्व को पृथक् न मान कर आत्मा मे ही समाविष्ट कर देता है, आत्मा की परमशुद्ध-मुक्तदशा को ही वह ईश्वर मानता है, जिसका जनदर्शन से बहुत अधिक साम्य है । जैनहष्टि से मोक्षदशा मे आत्मा