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________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भग वदले 'अन्य' शब्द प्रयुक्त किया गया है, इसलिए कर्म के अतिरिक्त जो भी परभाव (आत्मा से भिन्न भाव) है, उनके साथ सयोग-विच्छेद का पुरुपार्थ होने पर एक दिन उनसे मुक्ति हो सकती है और आत्मा अपने आप मे शुद्ध, बुद्ध मुक्त हो जाएगी और तव आत्मा और परमात्मा के बीच का अन्तर खत्म हो जाएगा, वह परमात्मरूप बन जाएगी । जैसे सोने को मिट्टी से अलग होने के लिए अमुक अमुक प्रक्रियाओ मे से गुजरना पड़ता है, वैसे ही आत्मा को कर्मों या परभावो से अलग होने के लिए भी धर्मध्यान आदि प्रक्रियाओ मे से उसे गुजरना आवश्यक है । जब तक आत्मा का कर्मों या परभावो के साथ बदस्तूर सम्बन्ध न्यूनाधिकरूप मे चलता रहेगा, तब तक वह [जीवात्मा] ससारी कहलाएगा, वह परमात्मा-[शुद्ध] रूप तभी कहलाएगा, जब कर्मों [परभावो] से सर्वथा रहित ही कर शुद्ध, बुद्ध, निरजन हो जाएगा। ... जीव [आत्मा] के मुख्यतया दो भेद है-सिद्ध और संसारी । जब तक प्राणी ससारी होता है, तब तक एक गति से दूसरी गति मे और एक योनि से दूसरी योनि मे वारवार भटकता रहता है । ससार मे भी चारगतियो ओर चौरासी लाख जीवयोनियो मे से वह किस गति और किस योनि मे जा कर पैदा होगा, यह भी शुभाशुभ कर्मों के अधीन है । यद्यपि कर्मवन्ध मनुष्य द्वारा स्वयमेव ' होता है, जिसका कर्मफल भी स्वयमेव भोगना होता है । कई लोग यह कह देते है कि कोई भी प्राणी अपने कृत कर्मों का अशुभ फल स्वय भोगना नही चाहता, इसलिए तथाकथित ईश्वर को बीच में कर्मफल भुगवाने के लिए माध्यम माना गया । मगर जैनदर्शन शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ईश्वर को बीच में नहीं डालता, वह कहता है कि कोई प्राणी चाहे या न चाहे, कर्मों मे स्वत तद्रप परिणमन की तथा फल देने की शक्ति है । जैसे मिर्च खाने पर मुंह अपने आप जल जाता है, उसके लिए किसी दूसरे को माध्यम बनाने की जरूरत ही नहीं होती। कर्म स्वत ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप मे वर्गीकृत हो कर वध जाते है ।- समय पर स्वयमेव फल दे देते है , जिसे प्राणी को भुगतना पडता है । कर्म अपना फल प्राप्त कराने देने मे स्वतत्र है । वे अन्य किसी फलदाता या माध्यम की अपेक्षा नहीं रखते । इमीलिए श्रीआनन्दघनजी ने पाहा--"जहाँ तक आत्मा को गे
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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