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परमात्मा का मुखदर्शन
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मुखदर्शन कर सकता। प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के रूप मे बहुत दीर्घकाल तक (उसकी स्थिति बहुत लम्बी होने के कारण) रहा, लेकिन वहाँ - भी प्रभु के मनोरम शान्त दीदार को व सूक्ष्मज्ञानचेतना और विचार करने के लिए द्रव्यमन न होने के कारण नही देख सका।
इसी प्रकार वहाँ से आगे बढ कर मेरा जीव दो इन्द्रियो (स्पर्शन एव रसना) वाले जीवो मे गया, जहां मैं स्वाद तो लेने लगा, परन्तु आँख के अभाव मे प्रभु को देख कैमे सकता था, यही हाल तीन इन्द्रियो (स्पशन, रसना एव प्राण इन्द्रिय) वाले जीवो मे उत्पन्न होन पर हुआ। उसके आगे प्रगति करके मेरा जीव चतुरिन्द्रिय (स्पर्शन, रसना, नाण आर चक्ष इन चार इन्द्रियो वाले) जीवो में पैदा हुआ, वहाँ भी प्रभुदशन के लिए आँख तो मिली, परन्तु अन्तर की आँख न मिलन वहाँ भी दर्शन न हो सके। यहाँ तक आ कर भी मैने पानी पर लकीर खीचने की तरह व्यर्य ही जन्म खोए। मुझे स्पर्शन, रसना, नाण, चक्षु और कर्ण ये पांचो इन्द्रियाँ भी मिली, लेकिन द्रव्यमन नही मिलने के कारण वीनरागप्रभु को प्रभु के रूप मे जाना-समझा भी नही, विचार भी न कर सका। इसलिए अमजी-पचेन्द्रिय जीव के रूप में जन्म लेना भी व्यर्थ गया।
इसके बाद मेरा जीव पर्वतीय नदी मे इधर-उधर लुढकने से चमकीले बने हुए गोलमटोल पत्थर की तरह विविध योनियो मे भटकता-भटकता किसी - तरह चार प्रकार के देवनिकायो मे से अनेक देवयोनियो मे पहुँचा। वहाँ पांचो इन्द्रियां, मन आदि मिले, भोगसामग्री भी पर्याप्त मिली, वैपयिक सुख भी पर्याप्न मिला, वैक्रिय गरीर मिला, लेकिन वहां भी मैंने अपना समय प्रभुमुखदर्शन मे न विता कर राग रग, भोगविलास और वैपयिक सुखो और कपायो मे ही विताया। अत वहाँ वीतरागप्रभू को प्रभु के रूप में जानने-समझने का प्रयास भी न किया। कई बार मैं तिर्यच-पचेद्रिय की विविध योनियो मे गया। वहां मैं जलचर, स्थलचर, सेचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के रूप मे विविध स्थानो मे पैदा हुआ, वहा मुझे मन भी मिला, लेकिन विवेक-विकल होने से उसका उपयोग अन्यान्य विषय-कपायो मे ही हुआ, परमात्मा के मुख को देखने का विचार तक मेरे मन में नहीं