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अध्याना-दर्शन
इस प्रकार समझ लो फि में पूर्वोक्त अनेक स्थानो में श्री वीतराग परमात्मदेव के (मुख) दर्शन के बिना ही रहा । यह ममम्न (पूर्वोक्त) अभिप्राय [विचार] वीतरागप्ररूपित आगमो [शास्त्रो मे हम जान सकते हैं। अतः हे ज्ञानचेतनारूपी सखी ! अब तो मुझे [जबकि में प्रभावदर्शन को योग्यता के लिए सम्यग्दृष्टि पा गया है] प्रभु के मुखचन्द्र का दर्शन करने दे, और आगमो के वर्णन मे समझ कर निर्मल [निवन्ध हो कर] मन-वचन-फाया को एकाग्र करके प्रभु की सेवा-भक्ति कर लेने दे । ॥५॥
विविध गतियो और योनियों में प्रभु मुखदर्शन से बचित रहा इस स्तुति की प्रथम गाथा मे परमात्मा के मुनचन्द्र गा बिम्न. उसके दर्शन का महत्व और दर्शन की नीव्रता बतलाई। परन्तु प्रभुमुख के दान इतने समय नक माधक की आत्मा ययो नहीं कर गकी? क्या कारण था दर्शन के लाभ में वचित रहने का? यह बान नहीं बताई गई थी। अत, गी वान को चार गाथाओ द्वारा श्रीआनन्दघनजी अभिव्यक्त करते हैं।
वास्तव में पूर्वोक्त विवेचन के अनुसार नहीं माने में वीतराग परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन सम्यग्दृष्टि आत्मा ही कर सकता है। अपने सिवाय जितनी भी गतियो और योनियो में जीव जाता है, वहां प्रभुमुल का दर्शन तो दूर रहा, उसकी जरा-नी करपना भी नहीं होती, ऐना विचार ही नहीं उठता। दमी बात को श्री आनन्दघनजी क्रमश कहते हैं
मेरी आत्मा मूश्मनिगोद नामक माधारण वनम्पतिकाय में रही, जहाँ अगुल के अमख्यातवें भाग जितने एक ही शरीर में (अनन्तजीवो के लिए एक ही शरीर मे, एक ही माथ श्वासोच्छ्वास और जन्म-मरण करते हुए) अनन्तकाल तक रही, परन्तु वहाँ तो अपने ही अस्तित्व का भान न था, वेसुध चेतना थी, वहाँ भला प्रभुमुखदर्शन कहाँ हो सकता था? औरः वादर निगोद वनस्पतिकाय मे भी अनन्तकाल तक रहा, मगर वहाँ भी सूक्ष्मज्ञानचेतना न होने से दर्शन न हो सका। यही हाल पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवो के रूप में रहते हुए रहा । वहाँ स्पर्शेन्द्रिय ही थी, द्रव्यमन या नहीं, जिगमे में चिन्तन कर सकता, और प्रशु