SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३० अध्यात्म-दर्शन क्या होगा? क्योकि फन तो निगम के अनुसार मिलना ही है । 'या या त्रिन्या गा सा फलवती', जैसी कारण-गामगी होगी, वैसा ही फल होगा, वैमा ही कार्य होगा, परन्तु जैसा फल सोचा हो, सा फल न आए तो यपने गारण के साथ फल वा अविमवाद कहलाता है। मलिए गान्तिकाक्षी के मन में फल पी को अमगति या णका नहीं होती कि गान्ति की गाधना का फल मिलेगा पा नही? शान्ति के लिए आत्मार्थप्राप्तिसूचक सापेक्ष वचन आप्तपुरप के मापेक्षा (नयवाद मे युक्त) वचनो मे शाति के इच्छुक व्यक्ति को का नहीं होती, या उसके भावार्य के सम्बन्ध मे उमे शका नहीं होती, उसके मन में ऐसी गवा नहीं होती कि ऐमा अर्थ होगा या दूनरा होगा? आप्तपुम्प के जो वचन (शब्द) होते है, उनका जो सर्थ होता है, यह उगे विना विमी विरोध या आपत्ति के समझता है और स्वीकार करता है। उन पाब्दो के मयं के सम्बन्ध में उसके मन में जरा भी उलान नहीं होती। ऐसा साधक' नयवाद (मागेक्षत्व) की दृष्टि के परस्पर अविरोधीरूप से नि.णक हो कर समाधान कर देता है , क्योकि वह पान्दो में विरोधता जानता है । इसलिए उसके निर्मल मन में शका वुशका को स्थान नहीं होना। उस प्रकार का निर्गन अन्न करण शान्ति के उपायक का होता है। वह शन्दो का उदाहरणाथ-मोक्षस्पफल में भी विविध गयो की अपेक्षा गे धर्मस्प साधन की व्यवस्था (सधि) इस प्रकार होती है-नंगमनय की अपेक्षा से जो जीव मोदक्षपद मे अवश्य जाएगा, उगमे निहित तथारप भव्यता को अथवा अपनबन्धकमाव को धर्म कहा जा सकता है। सग्रहनय की अपेक्षा मे मोक्ष के लोटे-बडे ओक का णो को धर्म कहा जा सकता है। व्यवहारनय की अपेक्षा में तमाम धार्मिक अनुष्ठानो को धर्म कहा जा सकता है। आजसूत्रनय की अपेक्षा मे देशविरति-सर्वविरति को धर्म कहा जा सकता है। शब्दनय की अपेक्षा से उच्चदशा की निर्विकला अवस्था को धर्म कहा जा सकता है। गमिर ढनय की अपेक्षा से सयोगी केवलज्ञानी अवस्था को बम वहा जा सकता है। एवभूतनय की अपेक्षा से शैलेशीकरण की अवस्था को घग कहा जा सकता है, जिसके बाद तत्काल ही मोक्ष प्राप्त हो जाना है।।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy