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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
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अपेक्षावाद (नयबाद) की दृष्टि से रहस्यार्य समझता है, कि अमुक पदार्य का अमूक अपेक्षा से अस्तित्व भी है, अमुक अपेक्षा मे नास्तित्व भी है। इस प्रकार के सापेक्ष वचन ही मोक्ष (शान्तिल्प) की साधना के कारण हैं । ऐसा शान्तिमाधक पृयक् पृयक दृष्टिबिन्दुओ को समझता-नमझाता है । इस प्रकार यह फलावचकयोग रूपशान्ति हई ।
शान्ति के लिए किन चीजो का ग्रहण और किन चीजो का त्याग करना चाहिए ? इस सम्बन्ध में श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे कहते है--
विधि-प्रतिषेध की आतमा पदारथ अविरोध रे। गहराविधिश महाजने परिग्रहो इस्यो आगम-बोध रे॥
शान्ति० ॥७॥
अर्थ
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, समाधि, समता, वैराग्य, भक्ति-क्षमा आदि आत्मप्राप्ति के या आत्मा में घटित होने वाले साधनो, गुणो, स्वभावो या धर्मों आदि का निरूपण (विधि) तथा मिथ्यात्व, मिथ्याग्रह, काम, क्रोध, हिसादि प्रमाद, स्वच्छन्दता, इन्द्रियविषयो मे प्रवृत्ति, आसक्ति वगैरह आत्मगुण के घातक या या आत्मा मे घटित न होने वाले गुणो, अमावो या विभावो आदि का प्रतिषेध निपेध, त्याग या प्रत्याख्यान) है । आ-मा को इस प्रकार विधि-निषेधरूप (करणीय कार्य को विधिरूप व अकरणीय को निपेधरूप) वायय द्वारा यथार्थ एव अविरोधरुप से जान कर महापुरुषो (ज्ञानीजनो) ने उन्हे जानने (ग्रहण करने) की योग्य पद्धति से आत्म-पदार्थ का स्वीकार किया (अपनाया) । आगमो [शारो] मे इस प्रकार का बोध है, जो शान्ति का कारण है।
भाष्य शास्त्रयोग से आत्मा का विधि-निषेध रूप मे ग्रहण . शान्ति का सोपान आत्मप्राप्ति के साधन के रूप मे अमुक कार्य, जो कि आत्मगुणो, आत्मस्वभावो, या आत्मधर्मों के लिए अनुकून है, इस रूप में करना चाहिए, यह शास्त्रोक्त विधि है, तथा इसके विपरीत आत्म-गुण के घातक व अमुक दुर्गुणो, विभावो,