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________________ ४०६ अध्यात्म-दर्शन लौकिक व्यवहार में उसके वियोग मे लोग अश्रुपात करते हैं, शोक मनाते है, छाती कूटते है, पर आप तो फिनी प्रकार का शोक करते ही नहीं, क्योकि शोक आदि सब अनान के कारण होता है, आपने ममान को समूल नष्ट कर दिया है, और केवलज्ञान को अपना लिया, इसलिए शोरु मदि का तो कोई सवाल ही नहीं है। आपने बज्ञानदशा का त्याग करके ज्ञानदशा अपनाई, यह भी मामूली काम नहीं है। आपने ज्ञान से स्वय को और ससार को प्रकाशित किया, महापुरुष बने, परन्तु इन सेवक की अवगणना क्यों कर रहे हैं ? भूल क्यो रहे है ? इमे भी अपनाइए, यह प्रार्थना है । आपकी यह गुणसरगी देख कर मुझे आनन्द होता है । निद्रा सुपन जागर उजागरता, तुरीय अवस्था आवी। निद्रा सुपन दशा रीसारणी, जाणी न नाथ ! मनावी, हो । म०३ ॥ अर्थ निद्रावस्था, स्वप्नावस्था, जागृत अवस्था और उजागरता-सदा जागृतअवस्था (केवलदर्शनमय अवस्या), इन चार सवस्याओं में से आपको तुरीय (केवलदर्शनमय-उनागर) अवस्था प्राप्त हुई, (इसे देख कर निद्रावस्था और म्वप्नदशा और उपलक्षण से जागृत अवस्था ये तीनो आपसे विलकुल नाराज हो गई । आपने उन्हे रुष्ट होते जान लिया, "फिर भी नाम आपने उन्हें मनाई नहीं। भाष्य निद्रा और स्वप्न दोनो दोषो का त्याग वीतराग सदा जागृत रहते हैं। उनमे द्रव्य और भाव दोनो प्रकार से सतत जागृति रहती है। इसीलिए श्रीआनन्द धनजी ने इस गाथा मे स्पष्ट कर दिया कि-'निद्रा सुपन जागर"..."" " " तुरीय अवस्था भावी' वीतराग प्रभु के ज्ञानवरणीय कर्म के साथ-साय दर्शनावरणीय कर्म भी नष्ट हो जाता है । दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियां होती है-(१) निद्रा, () निद्रानिद्रा, (३) प्रचला (४) प्रचला-प्रचला, (५) स्त्यानद्धिनिद्रा, (६) चक्षुदर्गनावरणीय, (७) अचक्षुदर्शनावरणीय, (८) अवधिदर्शनावरणीय और (E) केवलदर्णनावरणीय । इनमें से प्रथम निद्रारशा है, जिसमे ५ प्रकार की निद्रा का समावेश हो जाना है । निद्रा सरलता से प्राणी जागृत हो
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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