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________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४०५ इसी कारण मैं जीवादि तत्त्वो के यथार्थ वोध नहीं कर पाता । अतः उन्होने मज्ञानदोप को, दूर करने का प्रयत्न किया। ___ वास्तव मे आत्मा के साथ लगा हुआ यह अज्ञानदोष अनादिकालीन है। उसके रहते आत्मा क्या है ? शरीर क्या है ? ये सुख-दुख किन कारणो से आते हैं ? प्राणी शरीर के कारण, कुटुम्ब के दुख को देख कर दुखी होता है; सुगुरु, सुदेव और सुधर्म को क्रमश कुगुरु, कुदेव और कुधर्म मान कर तथा पाँचो इन्द्रियो के विषयों में लुब्ध हो कर दुख पाता है । धन, कुटुम्ब आदि जो पर-वस्तुएँ हैं, उन्हें अपनी मान कर दुख पाता है, वह कर्म क्या हैं, वे क्यो और कैसे उदय मे आते हैं ? उन्हे कसे काटा जा सकता है ? प्राणी इन सब बातो के अज्ञानवश अनेक बुरे (पाप कर्म करते हैं, पटद्रव्य को न पहिचानने के कारण स्वपर का भेदज्ञान नहीं हो पाता। इस प्रकार अज्ञानदशा से ग्रस्त जीव अनादिकाल से ससार मे परिभ्रमण करता आ रहा है। इम अज्ञानदशा का सर्वथा त्याग करके ज्ञानगुण का स्वीकार करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है । ज्ञान से लोकालोक प्रगट हो जाता है, और जो विचार केवलज्ञानी प्रगट कर सकता है, वही श्रु तज्ञान से श्रुतज्ञानी कह सकता है। ज्ञान से जीवाजीवादि पदार्थों का, ययार्थ बोध हो जाता है । ज्ञान आत्मा का लक्षण है, अनुजीवी गुण है। जहां तक आत्मा अपना स्वरूप नही जानता, वहाँ तक उसे बारवार मसार मे ठोकरें खानी पड़ती है, इसी कारण जीव ज्ञामावरणीय कर्मप्रकृति का सचय कर लेता है। जब आत्मा अपना ज्ञानस्वरूप धर्म समझ लेता है, तब ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृति से अपने आप छुटकारा पा लेता है । इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं-'ज्ञानस्वरूप अनादि तमारू, ते लीध तमे ताणी।' अर्थात् आपने अपना जो अनादि-स्वरूप स्वभाव, अज्ञानदशा के नीचे दबा हुआ था, अज्ञान की एडी तले कुचला जा रहा था, उसे जान कर ऊपर खींच लिया। मतलब यह है कि अज्ञान के चगुल से ज्ञान को आपने छूडा लिया और अनान को छुट्टी दे दी। जब वह आपका अनादिकालीन साथी अज्ञान रूठ कर चला जा रहा था, तब भी आपने उसे मनाया नही । आप विचार तो करिए । अज्ञानदशा को आपने रुष्ट कर दिया। वह आपसे रुष्ट हो कर सदा के लिए चली गई, फिर भी आप उसके लिए अफसोस नहीं करते । अपना कोई स्नेहीजन किसी को छोड कर चला जाता हो, तो
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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