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________________ ४०४ अध्यात्म-दर्शन से पूरा-पूरा जी-तोड पुरुषार्य करके काम लेना चाहिए, परन्तु दूमरा मेरा काम कर देगा, यह सोचना ही गलत है। इसी कारण वीनरागप्रमु ने आशादासी का जडमूल से त्याग कर दिया, वह यहां तक कि जब वे १२ वें गुगस्थानक पर चढ़े, तव तो आपने मोक्ष की आशा भी छोड़ दी। इस प्रकार आप मूल से आशा के त्यागी हैं, इस पर जव मैं सोचता हूँ और अपनी ओर या दुनिया की ओर देखता हूँ तो मुझे माप मे एक प्रश्न पूछने का विचार हो उठता है कि आप इस सेवक की अवगगना क्यो करते हैं ? कहाँ तो आपका आशा-त्याग का गुण और कहां लोगो की आशा ? इन दोनो का मेल कहाँ ? इसलिए नाशा पर आपकी विजय मुझे आश्चर्यचकित कर देती है कि आपकी शोभा मेरे जैसे नम्र सेवक का त्याग करने में नहीं, किन्तु उसे अपने बराबर बनाने मे है। जन श्रोआनन्दयन जी प्रभु से अपने हृदय की बात निवेदन करके चुप हो जाते है और आगे किन दोषो (तथाकथित सेवको) का कैसे कमे त्याग किया यह बताने में लग जाते हैं ज्ञानस्वरूप अनादि तमारूं ते लीधु तमे तारणी। जुओ अज्ञानदशा रिसावी, जातां काण न आरपी, हो ॥मल्लि०॥२॥ अर्थ प्रभो । मापका मनादिकाल से ज्ञानमय (ज्ञानचेतना) स्वरूप था। (परन्तु अजनदशा के कारण वह दबा हुआ था) उसे अपने केवलज्ञान प्राप्त करके खों व लिया (ऊपर ले लिया । उसके कारण, देखिये, जो आपकी अज्ञानदशा [अज्ञानपन मे जो अवस्या] यी, उसे आपने इतना अधिक रुष्ट (फद्ध) कर दिया कि वह रुष्ट हो कर सदा के लिए चली गई, फिर आपने उसके जाने का कोई अफसोस [शोका नहीं किया । वास्तव मे सर्वज्ञता प्राप्त होते ही आपकी अज्ञानर्दशा का चले जाना, पूरा शोभारूप था । भाष्य ___ . अज्ञानरूप दोष का त्याग श्रीआनन्दघनजी इस गाया मे बताते हैं कि प्रभु दूसरे दोष अज्ञानदशा का त्याग किस तरह करते हैं और उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है ? प्रभु ने जव यह देखा कि यह 'अजान' मेरे साथ बहुत बहुत समय से लगा हुआ है और
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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