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वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक
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आनन्द लूट लो, अन्दर का ही वह खजाना प्राप्त कर के अपने आप मे तृप्त हो जाओ । यही स्वर्ग है, यही से मोक्ष है। ऐसी साधना न करने या मौका चूकने पर (प्रमाद करने पर) यही नरक, तिर्यच आदि दुर्गति है। इस दृष्टि से चार्वाक दर्शन को उदररूप अग बताना बहुत ही अयपूर्ण है।
उदर का यह भाग बहुत हं उपेक्षित रहता है, कधे के नीचे दवा रहने से दवा हुआ रहा है, इसलिए इसे भी जैन-तत्वज्ञान के एक व्यवहारिक अग के रूप में स्थान दिया गया है।
श्रीआनन्दघनजी ने आगे चल कर इसी गाथा मे इसका स्पष्टीकरण भी कर दिया है-'अंश विचार जो कोजे रे' ___ ३६३ पाखण्डीमतो (क्रियावादी १८०, अक्रियावादी ८४, अज्ञानवादी ६७ और विनयवादी ३२ कुल ३६३) को भी जब जनदर्शन मे उदारतापूर्वक स्थान दिया है, तब चार्वाकदर्शन को पूर्वोक्त कारणो से स्थान देने मे उदारता को हो, इसमे तो कहना ही क्या है ? परन्तु इन सबके तत्वो (रहस्यो) पर विचाररूपी अमृतरसधारा का पान किमी योग्य एव अनुभवी उदारचेता' गुरुवर के विना हो नहीं सकता। इसी कारण श्रीआनन्दघनजी को भी कहना पडा -'तत्वविचार-सुपारमधारा गुरुगम विग किन पोजे रे ?
जैन जिनेश्वर उत्तम अग, अन्तरग-बहिरगे रे। अक्षर-न्यास घरा आराधक, आराधे धरी सगे रे॥
॥षड० ॥ ५॥
अर्थ जिनेश्वर परमामा के तत्वज्ञान द्वारा बताया हुआ दर्शन (जैनदर्शन) ' तोपकर सयोगी केवनी जिनका सर्व श्रेष्ठ अग=मस्तक है । वह अतरग और बहिरंग दोनो रूप मे उत्तमाग है । अथवा अतरग शुद्धि (रागद्वेष की मलिनता से रहित आत्मप्रत्यक्ष से) तया बहिरगशुद्धि (व्यवहार ज्ञानबल वरिप्रवल के शुद्ध अनुमव से प्रदर्शित जनदर्शन को स्थापना करने वाले, अथवा व्यजनाक्षर-सज्ञाक्षर का न्यास =ज्ञानार्य अक्षरस्थापनारूपी धरा=पृष्त्री (अक्षरावली वर्णमाला) का विन्यासया आज्ञाधर्मरूपी धरा के आराधक , आज्ञापालक) का परिचय करके