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अध्यात्म-दर्शन
करने मे प्रवृत्त होना सम्भव है। इसीलिए श्रीमानदानजी परमानगवदना का अन्तिम कारण बताते हैं.---'भवसागरमा सेतु' ।
कोई कह सकता है कि यह तो अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए उन्हें बदना करना हुना, वदना निवार्य होनी चाहिए। पन्तु यह बात को गागनी होगी कि उच्च ने उच्च स्वार्थ अत मे परमार्थ बन जाता है । जाम मार्ग पर चटने लिए किमी उत्तम मार्गदर्शक में मालूम करने में एक प्रचार का परमार्थ री है। स्वर्गादि मुख या इहलौकिक भौतिक सुखो को पाने की अभिलापा वन्दना का कारण होती तो अवश्य कहा जाता कि यह स्वार्थयुक्त वन्दना है।
परमात्म-वन्दना क्या है ? सस्कृतच्याकरण के अनुसार 'वदि अभिवादन-स्तुत्यो' वन्दनक्रिया अभिवादन-अभिमुख हो कर नमन करने तथा स्तुति करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है । वंदना में अपने आराध्य या वन्दनीय प्रभु के प्रति हृदय (मन) मे गुणाकर्षण हो कर प्रसन्नता की उमियां उछलने लगती हैं, यानी हृदय और वुद्धि वन्दनीय प्रभु के प्रति झुक जाते है। वाणी अन्यप्रशंसा या अन्यो के गुणगान से हट कर परमात्मा की स्तुति, प्रगमा अयवा गुणगान मे एकान हो जाती है तथा काया अन्यविषयो से सर्वया हट कर वन्दनीय परमात्मा के अभिमुख हो कर मभी अगों-महित सर्वथा झुक जाती है, उन्ही के ध्यान, नामजप या स्वरूपचिन्तन में इन्द्रियोसहित वह एलान हो जाती है। सामान्यतया वन्दना करने वाला जब वन्दनीय पुम्प के सम्मुख होता है तो अपना नाम भी प्रगट करता है कि मैं (अमुक नाम वाला) आपको वन्दन कर रहा हूँ। इसी प्रकार परमात्मा को वन्दना करने वाला भी जव अपना नाम पुकार कर प्रभु के प्रति वन्दन-नमन करेगा, तब सहमा ही उसे अपने स्वरूप का भान होगा।
निष्कर्प यह है कि परमात्मवन्दना वह है, जिसमे मन, बुद्धि, हृदय, वाणी, शरीर, इन्द्रियाँ तथा समस्त अगोपाग वन्दनीय प्रभु के प्रति झुक जाय, उन्ही के गुणचिंतन, गुणगान, गुणाराधन और गुणो मे तन्मयतापूर्वक लग जाय। निश्चयदृष्टि से परमात्मवन्दना का अर्थ हे-आत्मा का अपने शुद्ध म्वरूप
नाय प्रभु के प्रति
गुणगान, गुणाराधन
जाय। निश्चय