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अनेक नामो से परमात्मा की वन्दना
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परमात्मा की आत्मा भी मेरे ही समान हे, फिर ये तो अपने स्वरूप मे स्थिर होने से गात अमृतरस के समुद्र बने हुए है और मैं अणाति के महासागर मे गोते लगा रहा हूं। अत इस प्रकार की मेरी शाति को लुप्त करने या दबाने वाले कपायो, वासनाओ तथा राग-द्वेपो और तज्जनित होने वाले मोह या अतरायकर्मों के बन्धन मे दूर रहूँ, मैं प्रतिक्षण सावधान रह कर नवीन कर्मों के के प्रवेण को रोकू और पुराने कर्मो के उदय मे आने पर उन्हे समभाव से सहूं। और इस प्रकार मैं भी शान्तसुधारस-समुद्र परमात्मा के समीप पहुंच जाऊँ अथवा स्वय भी शातसुधारस का सागर बन जाऊँ ।
चौथा परमात्मवन्दना का कारण यह बताया है कि वह आत्मा और परमात्मा के बीच में पड़ा हुआ जो अथाह ससारसमुद्र है, उसे पार करने के लिए पुल के समान है।
किसी नदी या समुद्र को पार करने के लिए पुल का सहारा लिया जाता है। पुल के सहारे से व्यक्ति अनायास ही उससे पार हो जाता है। परन्तु ससार समुद्र इतना लम्बा-चौडा है कि इस पर पुल बनाने वाले बहुत ही ही विरले लोग होते है । हर एक के वश की बात नही हे यह । परन्तु वीतराग परमात्मा ने तीर्थकर-अवस्था मे ससारी जीवो के तिरने और ससारसमुद्र पार होने के लिए तीर्थ (चतुर्विध सघ-साधु-साध्वी-श्रावक श्राविकारूप) की स्थापना की थी। उसू तीर्यरूपी पुल के सहारे मे अनेक भव्यजीव इस ससारसमुद्र को पार कर गए और अव भी कर सकते है। इसलिए परमात्मवन्दना करने से भव्यजीव सहसा परमात्मा के अभिमुख होगा ही और उनके द्वारा किये हुए कार्यकलापो पर-उनके चारित्राराधन पर तथा तीर्थस्थापन पर अवश्य विचार करेगा। वन्दना के माध्यम से यह स्मरण ही उसे तीर्थ का सहारा ले कर ससारसमुद्र को पार करने में सहायक होगा। अथवा परमात्मवदना ही एक प्रकार से ससारमागर को पार करने मे पुल का काम करती है। क्योकि परमात्मवदना करते समय सहसा विचार होगा कि परमात्मा ससारसागर से कैसे पार हो गए और मैं क्यो पीछे रह गया? इस प्रकार ऊहापोह करने से वह समारसमुद्र को पार करने के लिए परमात्मा द्वारा तीर्थकरअवस्था गे स्थापित तीर्थ का सहारा ले कर ज्ञानदर्शनचाराि की आराधना