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अनेक नामों से परमात्मा की वन्दना
मे सर्वतोभावेन झुक जाना, नम जाना, उमी की स्तुति, गुणगान, गुणध्यान एव गुणचिंतन में लीन हो जाना। वास्तव में वन्दना वन्दनकर्ता को वन्दनीय पुम्प के पाम ला कर विठा देती है, उसे वन्द्य के निकटवर्ती बना देती है।
वन्दना किस परमात्मा को ? वन्दना किमे की जाय ? वन्दनीय परमात्मा कौन हो सकते है ? इसका रहस्योद्घाटन इस स्तुति की प्रथम गाथा मे तो किया ही है। बाकी की सभी गाथाओ मे वन्दनीय परमात्मा का स्वरूप ही बताया है। प्रथम गाथा मे श्रीसुपार्श्वजिन, सुख सम्पत्ति का हेतु, शान्तसुधारस-जलनिधि और भवसागर मे सेतु (पुल) ये चार विशेषताएँ वन्दनीय परमात्मा की बताई है । ये चारो विशेषताएँ वीतरागता, अनन्तसुखप्राप्ति, अनन्तज्ञानादिसम्पत्ति, परम शाति के अमृतसागर (निर्वाणप्राप्त) इन परमात्मा के चार गुणो से अभिव्यक्त की जा सकती हैं। वास्तव मे वन्दनीय आदर्श भी जब उक्त परमगुणो से सम्पन्न हो, तभी उससे लाभ उठाया जा सकता है, अन्यथा हीनगुणो वाले एव रागी-द्वेपी सासारिक सुखसम्पत्ति या पारसमणि वाले व्यक्तियो को वदना करने से गुणवृद्धि नही हो सकती। हीन आदर्श के प्रति वदना हीन गुणो को प्रगट कर सकती है, सर्वोच्च परमगुणो को नही ।
यो तो वीतराग परमात्मा के नामो और गुणो का कोई पार नहीं है, किंतु फिर भी मकेत के लिए श्रीमानन्दघनजी अगली गाथाओ मे वदनीय परमात्मा के कुछ विशिष्ट गुणो और नामो का निर्देश करते हैं
सात महाभय टालतो, सप्तम जिनवर, देव, ललना ! सावधान मनसा करी, धारो जिनपद-सेव, ललना ॥
श्रीसुपार्श्व ॥२॥ शिव, शंकर, जगदीश्वर, चिदानन्द भगवान, ललना । जिन, अरिहा, तीर्थकरू, ज्योतिस्वरूप असमान, ललना॥
___ श्रीसुपार्श्व० ॥३॥ अलख, निरंजन, वच्छलु, सकलजन्तु-विसराम, ललना। अभयदानदाता सदा, पूरण आतमराम, ललना ।।
श्रीसुपार्श्व०॥४॥