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________________ ५३६ अध्यात्म-दर्शन निष्कर्ष यह हुआ कि पण्डितवीर्य (ज्ञानपूर्वक आत्मभावोल्लास) होता है, तभी अभिसधिज (प्रयत्नपूर्वक कर्म ग्रहण करने योग्य) मति (स्वयप्रज्ञता या स्वयवुद्धता-शुद्धमति) प्राप्त होती है और उस शुभमति के सग से समार के कारण-कार्य का त्याग होता है, और साघु वनने के बाद भी ५ महाव्रतादि की स्थूलक्रिया और निज आत्मा को निज आत्मा मे स्थिर करने का-आत्मरमण करने की सूक्ष्मक्रिया का रग (भाव) उत्पन्न होता है। ___ यह सब देख कर श्रीवीरप्रभु को स्थूल और मूक्ष्म क्रिया करने का ऐसा मौका मिल गया कि समार से विरक्ति हो गई और अत्यन्त उत्साह से वे ससारत्यागी योगी हो गए। यानी छद्मस्थवीर्य और लेश्या के कारण कर्म ग्रहण होता है, यह सब देख कर वीरपरमात्मा अतीव उमग से योगी हो गए। असख्यप्रदेशे वीर्य असंखो योग असखित कखे रे। पुद्गलगण तेणे लेशु विशेष यथाशक्ति मति लेखेरे ॥ वी० ३॥ अर्थ आत्मा के असंख्य प्रदेशो में से प्रत्येक प्रदेश में क्षयोपशमिक असंख्य-असख्य आत्मवीर्य के अविभाग=अंश होते हैं और उनको ले कर आत्मा उनके समूहरूप असंख्य मन-वचन-काया के योगो-योगस्थानो को चाहता है, समर्थ बनता है और उससे पुद्गलों के समूह से (कारण से) उसकी मदद (योग) से ग्रहण अथवा पुद्गलसमूह तया लेश्या अनेक प्रकार की होने के कारण विशेषरूप से लेश्याओ के परिणामवल से वृद्धि प्राप्त हो जाती है, ऐसा जान लेना चाहिए । भाष्य मात्मा मे वीर्य का स्थान प्रत्येक आत्मा के मसत्य आत्मप्रदेश होते हैं। उनमे से प्रत्येक प्रदेश में असख्य वीर्य के अविभाग अंश होते हैं। वह वीर्य प्राय. क्षायोपशमिक वीर्य होता है। श्रीआनन्दघनजी इस विचार पर एकदम ठिठक गए, उन्होंने आत्मा की वीरता पर मनन-चिन्तन किया तो उन्हें याद माया कि अपनी आत्मा मे कितनी १. किसी किसी प्रति मे 'लेशं विशेषे' के वदले 'ले सुविशेषे' है, अर्थ होता है-"पुद्गल समूह उसकी मदद से लेता है ग्रहण करता है।"
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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