________________
परमात्मा से पूर्ण वीरता की प्रार्थना
५३५
वीर्य के दो प्रकार है-छद्मस्थवीर्य और मुक्तवीर्य । जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता, तब तक जीव छद्मस्थ कहलाता है। छद्मस्य से यहाँ तात्पर्य है-मज्ञान मे फैमा हआ जीव । उसका वीर्य कर्मों के कारण ढका रहता है, पूरा पूरा खुला नहीं होता। लेश्या का अर्थ है-आत्मिक अध्यवसाय= कृष्णादिद्रव्यो के सहयोग से आत्मा मे उत्पन्न हुए अलग-अलग माव-मनोव्यापार। मदकपाय हो, तभी शुभलेश्या-धर्मलेश्या आती है और शुभलेश्या के साथ (लेश्या से मग=)सम्बन्ध हो, वहाँ पण्डिनवीर्य ज्ञानपूर्वक आत्मभावोल्लाम हो, तव तक अभिसन्धिज योग कहलाता है। लेश्यायुक्त छद्मस्थ जीव की समझबूझ कर इरादतन कायादि योग से होने वाली आत्मा की सूक्ष्मस्थूल प्रवृत्तियो के आनन्द (रग) मे आ कर उत्साहपूर्वक आत्मा योगी (मनवचन काया के योगो वाला) हो जाता है, वह 'अभिमधिज योग कहलाता है। और म्वास प्रकार के प्रयत्न आत्मा मे होने वाले सहज स्फुरण-से शरीर मे जो प्रवृत्ति सहजरूप से चलती है। रक्त वगैरह धातुओ मे अनेक प्रकार की प्रवृत्तियो-(कम्पन, स्फुरण--एक मे से दूमरे मे होने वाला रूपान्तर चलता रहता है) से आत्मा में होने वाला स्फुरण-'अनभिसन्धिजयोग' कहलाता है।
इन दोनो को सरलता से समझते हैं- हम नीद लेते हैं, उस समय भी शरीर के प्रत्येक घातू मे कुछ न कुछ प्रवृत्ति चलती रहती है, उस समय आत्मप्रदेशो मे भी कर्मों के कारण-खोनते हए पानी के बर्तन मे जैसे पानी उछलता रहता है, वैसे सतत प्रवृत्ति चालू रहती है, उसे अनभिसधियोग कहते हैं । तथा जब हम चलते हैं या हाथ से कुछ उठाते हैं, तब कुछ अलग ही किस्म की ताकत लगानी पडती है, उस समय शरीर तथा आत्मा मे-मन-वचन-काया मे-प्रयत्नपूर्वक जो प्रवृत्ति चलती है, उस समय मन-वचन-काया मे जो योग उत्पन्न होता है, उमका नाम अभिसाधेज योग है।
१ वीरियऽन्तराय-देसक्खरण सव्वक्खएण वा लद्धी।
अभिसधिजमियर वा तत्तावीरिय सलेसस्स ॥३॥ कर्मप्रकृति वीर्यान्तराय कर्म के देश से या सर्व से क्षय होने से प्राणियो को जो लब्धि उत्पन्न होती है, उसके कारण छद्मस्थलेश्यावाले सर्वजीवो को जो वीर्य होता है, वह अभिस धिज (या अनभिसधिज) वीर्य कहलाता है, (बाको के केवलज्ञानी या सिद्ध भगवान् का वीर्य क्षायिकवीर्य कहलाता है)