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________________ ५३४ अध्यात्म-दर्शन नातवें धातु के रूप मे प्रतीत होता है। शरीरस्य वीर्य पुद्गलवर्षणा मे बना हुआ होता है। परन्तु उसके निर्माण मे आत्मा का वीर्यगुण जितना प्रकट होता है, उतना ही, उतने वल वाला हो पोद्गलिक वीर्य प्रगट हो सकता है। यही कारण है कि शरीर छोटा होते हुए भी हाथी की अपेक्षा सिंह मे वीर्य (शक्तिशालिता) अधिक होता है । वीर्य (शक्ति, बल, स्थाम, पराक्रम, शौर्य, उत्साह आदिरूप) मूल मे आत्मा की वस्तु है , यह बात जनदर्शन बहुत ही स्पष्टतापूर्वक समझाता है । जनदर्शन का कथन है कि छोटे-बडे कोई भी जन्तु, कीट, पशु, पक्षी, मानव या देव वगैरह मन, वचन और शरीर से जो कुछ भी सूक्ष्म या स्थूल हलचल, स्पन्दन या प्रवृत्ति करते हैं, उन मवमे आत्मा का वीर्य ही काम आता है। उस वीर्य के बिना जड मन-वचन-काय कुछ भी नहीं कर सकते। आत्मा मे वीर्यशक्ति के दो भाग है। केवलज्ञानी प्रभु की ज्ञानशक्ति से भी उसके दो भाग न हो सकें, ऐमा एक भाग लें। उसका नाम वीर्य का एक अविभाग कहलाता है। ऐसे बनन्त वीर्य-अविभाग प्रत्येक आत्मा मे होते हैं। परन्तु प्रत्येक आत्मा के मारे के सारे वीर्या श-विभाग खुले नहीं होते। अपितु न्यूनाधिक अशो मे खुले रहते हैं। वाकी के कम से ढके हुए (आवृत) रहते हैं । कम से कम खुली वीर्यशक्ति वाले जीवो से ले कर ठेठ सारी की सारी पूर्णवीर्यशक्ति खुली हो, वहां तक के भी जीव (आत्मा) मिन सकते हैं। यह न्यूनाधिक वीर्य शक्तियो की एक तालिका दी गई है। किस जीव मे कितने हद तक का आत्मिक वीर्य खुला होता है, इसका भी अल्पत्व-बहुत्व बताया गया है। आत्मा मे जो स्फूरणा हुआ करती है, वह कर्म के सम्बन्ध के कारण होती है। जब तक आत्मा का वीर्य स्थिर नहीं होता, तब तक प्रकम्पित रहता है। ज्यो ज्यो कर्म कम होते जाते हैं, त्यों-त्यो वीर्य मे स्थिरता नाती जाती है। अन्त मे, शैलेशीकरण के समय आत्मा मेरुपर्वत (गैलेश) की तरह स्थिर हो जाता है। मेरु का तो दृष्टान्त है; परन्तु मेरु की अपेक्षा भी आत्मा अधिक दृढ, स्थिर, निप्कम्प बन जाता है । तथा तुरन्त एक ही समय मे मोक्षस्थान में पहुंच जाता है।' योगीश्री ने सक्षेप मे मुद्दो सहित वीर्य के सम्बन्ध मे बहुत-मी बातें समझा दी हैं। १ जनशास्त्रो में तथा कम्मपयडी, कर्मग्रन्थ वगैरह ग्रन्यो मे इसका विस्तृत वर्णन है। उसका गहराई से अध्ययन करने से जनदर्शनसम्मत आत्मिक वीर्य का स्वरूप समझा जा सकता है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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