________________
परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना
५३७
वीर्यशक्ति है, वह कहां-कहाँ है ? मैंने प्रभु से वीरता मांगी, यह उचित तो नहीं लगता । जब अपने पास असख्य आत्मप्रदेश हैं और प्रत्येक आत्मप्रदेश मे असख्य अविभाग वीर्याश (आत्मबल) होते हैं। यह बल (वीय श) जब वहिर्मुखी बन कर कंपन करता है, तव मनोयोग के लायक मनोवर्गणा के पुद्गलो का ग्रहण करता है और उनसे मनोयोग बनता है। इसी प्रकार वचनयोग के लायक भाषावर्गणा के पुद्गलो को ग्रहण करने से वाणीयोग बनता है और इसी तरह कायायोग के लायक कायावर्गणा के पुद्गलो का ग्रहण करने से कायायोग वनता है । इन योगो के सामर्थ्य से लेश्या का परिणाम बनता है, और लेश्या की परिणाम शक्ति से बुद्धि प्राप्त होती है। यहाँ आत्मवीर्य की मुख्यता है । आत्मा इन मव शक्तियो तथा मुख्यतः वीर्यशक्ति का पावरहाउस है । अतः जो वीरता मैंने भगवान् से मागी थी, वह तो मेरे अपने अन्दर है। इसके ब द उन्हे यह खयाल आया कि शरीर मेरा अपना ही पुद्गलसमूह है, जो लेश्याविशेष के द्वारा आत्मिक अध्यवमाय के योग से अपनी बुद्धि के अनुमार उसे ग्रहण करता है। मनुष्यगति मे तो आत्मिक अध्यवसायरूप लेश्या का जोर है, योगो का भी जोर है अत. शुभ उत्तम लेश्या के माध्यम से अगर छदमस्थवीर्य भी अपने मे बढाए तो बहुत है। फिर यह दृढ आत्मविश्वास भी हो गया कि जिस वीरता को मांग तू भगवान् से कर रहा है, वह तो अपने मे भरा है, सिर्फ उमे क्रमश प्रगट करने की जरूरत है। प्रभु से उस वीरता को मांगने की जरूरत नहीं थी। वह तो चाहे जिम गति मे जीव जाए, अपने अन्दर ही पडी है। जो वस्तु अपने अन्दर पडी है, उसे बाहर से मांगने की जरूरत नहीं है। वीर-प्रभु ने भी किसी दूसरे से नही मागी, स्वय पर आत्मविश्वास रख कर वे अपने वलबूते पर टिके रहे, मुसीवतो का सामना किया, इसलिए वीरता के मार्ग मे आने वाले विघ्नो का जाल तोड सके ।
अगली गाथा मे वीर्य (वीरता) के स्थायित्व की बात श्रीआनन्दघनजी कहते हैं
उत्कृष्टे वीरज ने वेसे, योगक्रिया नवि पेसे रे। योगतणी ध्रुवताने लेशे, आतमशक्ति न खेसे रे ॥ वीर० ॥४॥
१. कही कही 'वीरज ने वैसे' की नगह 'वीर्य निवेशे' भी पाठ है।