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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा
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शुचि मे गुमार है । यह नो हुई द्रव्यगुद्धि की वात । भावपूजा मे भावणुद्वि के लिए पूर्वोक्त प्रकार गे लक्ष्यपूर्वक चित्त की प्रसन्नता, उत्माह और आत्मसमर्पणता रखना है। उग समय चित्त मे किसी प्रकार का गोक, विपाद, घृणा या चपलता नहीं होनी चाहिए । नभी भावपूजा मे भावतः शुचिभाव आ सकता है । अगर भावपूजा भी किसी सौदेबाजी, म्वार्थसिद्धि या लौकिक कामना के अशुद्वभावो को ले कर की जाय, तो वह दूपित हो जाती है, वह पवित्र, निष्काम, निकलुप एव विशुद्ध निर्जरालक्षी या, आत्मगुणविकासलक्षी नहीं रहती।
द्रव्यपूजा और भावपूजा कहाँ की जाय ? यद्यपि परमात्मा की पूजा के लिए कोई स्थानविशेप नियत नहीं होता, तथापि सामाजिक दृष्टिकोण से समाज के आम आदमी को वीतरागपूजा की ओर प्रवृत्त करने के लिए श्रीभद्रबाहु स्वामी के बाद के आचार्यगण तात्कालिक परिस्थितियो को मद्देनजर रख कर शुभ उद्देश्य से जैनमन्दिर, चैत्यालय या जिनालय के लिए प्रेरणा देने लगे। इसी परम्परा के सन्दर्भ में श्रीआनन्दधनजी कहते है-'हरखे देहरे जइए रे' अर्थात् परमात्मा-पूजा के लिए हर्पपूर्वक देवालय मे जाना चाहिए। देहरा या देरामर-शब्द देवगृह, देवाश्रय आदि शब्दो का अपनंग है । जहाँ वीतरागपरमात्मा की मूर्ति (प्रतिमा या विम्ब) की स्थापना की जाती है और जिनभगवान् का आरोपण करके द्रव्यपूजा भावपूजानुलक्ष्यी की जाती है । द्रव्यपूजा की दृष्टि मे यह अवलम्बन है। परन्तु जिसे द्रव्यपूजा न करके परमात्मा की सीधी भावप्जा ही करनी हो, उसके लिए देवालय देह या हृदय हो सकता है , वही आत्मदेव विराजमान है। उसमे परमात्मदेव का आरोपण करके परमात्मा की भावपूजा करनी चाहिए। एक आचार्य ने तो स्पष्ट कहा है कि यह 'देह ही देहरासर (देवालय) है । इसी मे विराजमान शुद्ध आत्मदेव को परमात्मदेव मानो और अज्ञानरूपी मैल दूर करके सोऽहभाव से उसकी पूजा करो।
अथवा दहराश्रय का मतलव हृदय-मन्दिर भी है । क्योकि परमात्मदेव को
१ देहो देवालय प्रोक्त जीवो देव- सनातन । त्येजेदज्ञाननिर्माल्य, सोऽहंभावेन पूजयेत् ॥