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________________ अध्याग-दर्शन और वीर्य वा घात करते है, उनमे विनवाग पहुँचाने। ये है-- भानावरणीय, दांनावरणीय, गोरगीर और अनगन। प्रशारणीर जान का काम या ज्यादा पान करना पता है । यह वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं होने देना। दर्णनावरणीर बन्नु गा गागान्य वोध होने में विन दालना है। जो वृद्धि पो चाकरमटान र गग-देष के आथित बना कर मनोविकार्ग, कपायो व वेदोदय ताग चाग्नि पर प्रभाव डानना है वह चारित्रमोहनीय तथा शद्व आत्मा-परमात्मा के दर्शन में बावर नता है, वह निगोहनीय न में है। जो आत्मा की अनित्यशक्ति, अनन्न बल-वीर्य विकसित नहीं होते देना, वह अन्तरायरम है। इन नारी पानीको की सर्वगुणघाती प्रकृनियाँ २० हैं और देशघाती कर्मप्रगनियाँ २७ है । बागी के ४ (वेदनीय, नाम, गोग और आयु) वर्ग अघाती है। ये आत्मगुणों का सीधा घात नहीं करते। ये प्राय शरीर में ही अधिक सम्बन्धित है। श्रीआनन्दघनजी परमात्मा से प्रार्थना करते है"हे जगन्नाथ ! ये आन्मगुणघाती कर्मपर्वत है, जो आपके दर्शन में अलरायम्प है। ये पहाड जब तक चूर-चूर नहीं हो जायेंगे, तब तक आपके दर्शन होने कठिन है। निश्चयनय की दृष्टि से कहे तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप के दर्शन होने में ये परभावम्प घानीकर्म विघ्नकारक है। ये चारो मिल बार मेरे अनन्तनानगुण, अनन्तदर्शनगुण, अनन्तचारित्रगुण और अनन्नवलवीर्य का हाल कर रहे है. अथवा मैंने इन परभावो को अपने मान कर अपनाए, ये मेरे ही अपनी स्वरूप के दर्शन मे वाधक बन गए हैं। इन्हें कैसे दूर कर ? दर्शन में विघ्न : साथी पथप्रदर्शक का अभाव कोई कह सकता है कि साधक को तो अपनी आत्मा में ही रमण करने मे मतलव है, कर्मों का आत्मा से सम्बन्ध ही क्या है ? ये क्या कर सकते हैं ? परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। साधक वाहर मे शुष्क अध्यात्मवाद के घेरे में पडा-पडा यो कहता रहता है ~~'मैं जाता हूं, इप्टा हूँ, निर्मोही हूँ, अनन्तबली हूँ, परन्तु इस भ्रम में अपने आपका अधिक मूल्याकन करके जब वह परमात्मदर्शन के मार्ग पर आगे बढ़ता है तो उसके पैर लडखटाने लगते है, उसका हृदय कापने लगता है, उसकी गति सासारिक मोहमाया मे ही
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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